Book Title: Sanjay Velatthiputta aur Syadwad
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 5
________________ विवक्षा कोई एक ओर । और 'बाद' शब्दका अर्थ है मान्यता अथवा कथन । जो स्यात् (कथञ्चित्) का कथन करनेवाला अथवा स्यात्' को लेकर प्रतिपादन करनेवाला है वह स्याद्वाद है । अर्थात् जो सर्वथा एकान्तका त्यागकर अपेक्षासे वस्तुस्वरूपका विधान करता है वह स्याद्वाद है। कथञ्चिद्वाद, अपेक्षावाद आदि इसीके दूसरे नाम हैं-इन नामोंसे भी उसीका बोध होता है। जैन ताकिकशिरोमणि स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसा और स्वयम्भूस्तोत्रमें यही कहा है स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात्किवृत्तचिद्विधिः । सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ।।१०४||-आप्तमीमांसा । सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहिते ॥ सर्वथानियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः । स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ।। स्वयम्भूस्तोत्र । अतः 'स्यात' शब्दको संशयार्थक, भ्रमार्थक अथवा अनिश्चयात्मक नहीं समझना चाहिये । वह अविवक्षित धर्मोकी गौणता और विवक्षित धर्मकी प्रधानताको सूचित करता हुआ विवक्षित हो रहे धर्मका विधान एवं निश्चय करानेवाला है। संजयके अनिश्चिततावादकी तरह वह अनिर्णीति अथवा वस्तुतत्त्वकी सर्वथा अवाच्यताकी घोषणा नहीं करता। उसके द्वारा जैसा प्रतिवादन होता है वह समन्तभद्रके शब्दोंमें निम्न प्रकार है कथञ्चित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥१४।। सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१५॥ क्रमापितद्वयाद् द्वैतं, सहावाच्यमशक्तितः। अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ॥१६।। अर्थात् जैनदर्शनमें समग्न वस्तुतत्त्व कथञ्चित् सत् ही है, कथंचित् असत् ही है प्रथा कथंचित् उभय ही है और कथंचित् अवाच्य ही है, सो यह सब नयविवक्षासे है, सर्वथा नहीं। स्वरूपादि (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव इन) चारसे उसे कौन सत् ही नहीं मानेगा और पररूपादि (परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभाव इन) चारसे कौन असत् ही नहीं मानेगा। यदि इस तरह उसे स्वीकार न किया जाय तो उसकी व्यवस्था नहीं हो सकती। क्रमसे अपित दोनों (सत और असत) की अपेक्षासे वह कथंचित् उभय ही है, एक साथ दोनों (सत् और असत्) को कह न सकनेसे अवाच्य ही है । इसी प्रकार अवक्तव्यके बादके अन्य तीन भङ्ग (सदवाच्य, असदवाच्य, और सदसदवाच्य) भी अपनी विवक्षाओंसे समझ लेना चाहिए। यही जैनदर्शनका सप्तभङ्गी न्याय है जो विरोधी-अविरोधी धर्मयुगलको लेकर प्रयुक्त किया जाता है और तत्तत् अपेक्षाओंसे वस्तु-धर्मोका निरूपण करता है । स्याद्वाद एक विजयी योद्धा है और सप्तभङ्गीन्याय उसका अस्त्र-शस्त्रादि विजय-साधन है। अथवा यों कहिए कि वह एक स्वतः सिद्ध न्यायाधीश है और सप्तभङ्गी उसके निर्णयका एक साधन है । जैनदर्शनके इन स्याद्वाद, सप्तभङ्गीन्याय, अनेकान्तवाद आदिका विस्तृत और प्रामाणिक विवेचन आप्तमीमांसा, स्वयम्भूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, सन्मतिसूत्र, अष्टशती, अष्टसहस्री, अनेकान्तजयपताका, स्याद्वादमञ्जरी आदि जैन दार्शनिक ग्रन्थोंमें समुपलब्ध है। -१८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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