Book Title: Sanjay Velatthiputta aur Syadwad
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 3
________________ उनके माननेवाले जैन विद्यमान थे और इसलिये उनके द्वारा संजयके वादको अपनानेका राहुलजीका आक्षेप सर्वथा निराधार और असंगत है । ऐसा ही एक भारी आक्षेप अपने बौद्ध ग्रन्थकारोंकी प्रशंसाकी धनमें बे समग्र भारतीय विद्वानोंपर भी कर गये, जो अक्षम्य है । वे इसी 'दर्शन दिग्दर्शन' (पृ० ४९८) में लिखते हैं "नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु दिङ्नाग, धर्मकीर्ति--भारतके अप्रतिम दार्शनिक इसी धारामें पैदा हुए थे। उन्हींके ही उच्छिष्ट-भोजी पीछेके प्रायः: सारे ही दूसरे भारतीय दार्शनिक दिखलाई पड़ते हैं।" राहुलजी जैसे कलमशूरोंको हरेक बातको और प्रत्येक पदवाक्यादिको नाप-जोखकर ही कहना और लिखना चाहिए । उनका यह लिखना बहुत ही भ्रान्त और आपत्तिजनक है । अब संजयका वाद क्या है और जैनोंका स्याद्वाद क्या है ? तथा उक्त विद्वानोंका उक्त कथन क्या संगत एवं अभ्रान्त है ? इन बातोंपर संक्षेपमें विचार किया जाता है। संजयवेलठ्ठिपुत्तका वाद (मत) भगवान् महावीरके समकालमें अनेक मत-प्रवर्तक विद्यमान थे। उनमें निम्न छह मत-प्रवर्तक बहुत प्रसिद्ध और लोकमान्य थे १ अजितकेश कम्बल, २ मक्खलि गोशाल, ३ पूरण काश्यप, ४ प्रक्रुध कात्यायन, ५ संजय वेलट्टिपुत्त और ६ गौतम बुद्ध। इनमें अजितकेश कम्बल और मक्खलि गोशाल भौतिकवादी, पूरण काश्यप और प्रक्ध कात्यायन नित्यतावादी, सञ्जय वेलट्ठिपुत्त अनिश्चिततावादी और गौतम बुद्ध क्षणिक अनात्मवादी थे । प्रकृतमें हमें सञ्जयके मतको जानना है। अतः उनके मतको नीचे दिया जाता है। 'दीघनिकाय' में उनका मत इस प्रकार बतलाया है यदि आप पूछे-'क्या परलोक है', तो यदि मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बताऊँ कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता वैसा भी नहीं कहता, दूसरी तरहसे भी नहीं कहता । मैं यह भी नहीं कहता कि 'वह नहीं हैं'। मैं यह भी नहीं कहता कि 'वह नहीं नहीं है । परलोक नहीं है, परलोक नहीं नहीं।' देवता (= औपपादिक प्राणी) हैं"। देवता नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न नहीं हैं." अच्छे बुरे कर्मके फल हैं, नहीं है, हैं भी नहीं भी, न हैं और न नहीं है । तथागत (= मुक्तपुरुष) मरनेके बाद होते हैं, नहीं होते हैं....." ? ~~यदि मुझसे ऐसा पूछे, तो मैं यदि ऐसा समझता होऊँ तो ऐसा आपको कहूँ। मैं ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता "।" यह बौद्धों द्वारा उल्लेखित संजयका मत है । इसमें पाठक देखेंगे कि संजय परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्तपुरुष इन अतीन्द्रिय पदार्थों के जानने में असमर्थ था और इसलिये उनके अस्तित्वादिके बारेमें वह कोई निश्चय नहीं कर सका। जब भी कोई इन पदार्थों के बारेमें उससे प्रश्न करता था तब वह चतुष्कोटि विकल्पद्वारा यही कहता था कि मैं जानता होऊँ तो बतलाऊँ और इसलिये निश्चयसे कुछ भी नहीं कह सकता।' अतः यह तो बिलकुल स्पष्ट है कि संजय अनिश्चितावादी अथवा संशयवादी था और उसका मत अनिश्चिततावाद या संशयवादरूप था। राहलजीने स्वयं भी लिखा है कि "संजयका दर्शन जिस रूपमें हम १. देखो, 'दर्शन-दिग्दर्शन' पृ० ४९२ । -१८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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