Book Title: Sangraha vrutti se Asangraha vrutti ki aur
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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Page 3
________________ जीवनका सम्बन्ध लगा हआ है। उसी विकसित शक्तिकी दिशा मोड़कर उसे सत्कर्ममें लगा दिया जाय, तो जीवनोत्थान अवश्यम्भावी है। इसीलिये कहा गया है-'जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा' । जो अधिकसे अधिक संग्रह कर सकता है, वह अधिकसे अधिक त्याग भी कर सकता है, वृत्ति या शक्तिको दिशा भर बदलनेकी बात है। विश्वमें जो भी संघर्ष है, अनीति या अधर्म है, उसका प्रधान कारण संग्रह या ममत्व है। किसी वस्तुपर मैने अपनापन आरोपित कर दिया, तो उसे मैं दूसरोंको न लेने दूंगा, न दूंगा ही । उसके लिए युद्ध, द्वेष, कलह-सभी कुछ किये जाते है । जो वस्तु मेरी नहीं है, पर उसे प्राप्त करनेकी इच्छा हो गई, तो उसके प्रति मेरा ममत्व जगा और फिर जिस किसी भी प्रकारसे, दूसरेका विनाश करके भी, उसकी प्राप्तिका प्रयत्न मेरे द्वारा किया जायगा। सभी युद्ध द्वष, अशान्ति और अनैतिकता इसी परिग्रहपर आधारित हैं। शान्ति प्राप्तिका उपाय सीमित ममत्वका परित्याग है। जीवनोपयोगी किसी भी वस्तुपर व्यक्ति विशेष या देश विशेषका अधिकार न होकर यदि वह सबके लिए सुलभ हो जाय, व्यक्ति संयम, त्यागकी ओर बढ़ते हुए दूसरोंके लिए उन वस्तुओंको मुक्त कर दे, उनसे अपनापन हटा ले, तो अशान्ति स्वयं हट जावेगी। ममत्वको दूर करनेके दो तरीके है-ममत्वका परिहार और ममत्वका विस्तार । समत्वकी ओर बढ़नेके लिए ममत्वका परिहार तो करना ही होगा, पर यदि हम सीमित ममत्वको हटाकर उसका विस्तार करते हुये समस्त प्राणियोंको अपना परिवार ही मान लें, तो उसका परिणाम भी समत्वमें ही परिणत होगा। कोई वस्तु हमारी नहीं, सारे समाज, राष्ट्र व देशकी है और हम सब उसीके अंग हैं। या जो भी व्यक्ति हैं, वे अपने ही है, ऐसा मान लेनेसे अलगाव, विषमताका भाव हटकर अशान्तिके कारण नष्ट हो जायेगें । "त्याग करते हए भोग करो" इस उपनिषद वाक्यका सन्देश भी यही है कि त्यागका लक्ष्य भुलाया न जाय, भोगोंमें आसक्ति बढ़ाई न जाय, वस्तुओं व धनके हम ट्रस्टी बनकर रहें-गान्धीजीका यही सन्देश था। जैनधर्ममें मुनि जीवनके लिए असंग्रही जीवन बितानेके कठोर नियम हैं। कलके भोजनका भी मुनि आज संग्रह करके नहीं रख सकता। उसके लिए रुपये-पैसेका तो स्पर्श भी निषिद्ध है। उच्च जीवनमें तो दिगम्बरत्व ही अपनाया जाता है। शरीरके सिवा मयर-पिच्छी कमण्डलके समान धर्मोपकरणोंके अतिरिक्त और कोई चीज उसके पास नहीं रहती। वह भिक्षावृत्ति से आहार ग्रहण करता है, वह भी हाथमें ही। कोई पात्र भी नहीं रखा जाता। दसरं प्रकारके स्थविरकल्पी साधओंके आचारमें वस्त्र. पात्र आदि धर्मोपकरणोंकी कुछ छूट रहती है। गहस्थके लिए सर्व संग या संग्रहका परित्याग सम्भव नहीं, पर उसके लिए भी परिग्रहका परिमाण करना पाँचवाँ अणव्रत है। वह अपनी इच्छाओंको सीमित कर ले उन्हें आवश्यकताओंसे अधिक बढ़ने न दे । उनको और भी सीमित करनेके लिये अणुव्रतोंके साथ गणव्रत और शिक्षाव्रत जोड़े गये हैं, जिनमें सुबहसे शाम और शामसे सुबह तकके भोगोपभोगका परिमाण चौदह नियमोंके द्वारा किया जाता है। जैन मुनियोंने वस्तुओंपर जो व्यक्तिका ममत्व है उस ममत्वको हटानेका बहुत अधिक प्रयत्न किया है। उन्होंने देखा कि एक-एक इंच भमिके लिए एक ही माताकी कोखसे जन्मे हए भाई-भाई भी परस्परमें लड़ते हैं । राजा आदि अधिपति तो उसे अपनी ही बपौती मानते हुए बड़े-बड़े युद्ध तक करते हैं, जिनमें लाखों व्यक्तियोंके प्राणोंकी और लाखों करोड़ोंका धन व वस्तूओंका विनाश होता है और जल्दी राजगद्दी प्राप्त करनेके लिए पुत्र पिताको मार डालता है। इस तरहकी विध्वंसलीलाको देखकर उनका हृदय सिहर उठा और उन भूमिपतियोंको सम्बोधित करते हुए उन्होंने जो मंगलमय वाणी प्रसारित की, उसके दो नमूने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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