Book Title: Samraicchakaha Part-1
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Mangal Parekhno Khancho Jain Sangh - Shahpur - Ahmedabad
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समराइच्च
कहा
॥४॥
मुत्ति-तव-संजम-सच्च-सोया-ऽऽकिंचन-बंभचेरपहाणा, अणुव्यय-दिसि-देसा-ऽणत्थदण्डविरई-सामाइय-पोसहोववासो-वभोगपरिभोगा-ऽतिहिसंविभागकलिया, अणुकम्पा-ऽकामनिज्जराइपयत्थसंपउत्ता सा धम्मकह त्ति । जा उण तिवग्गोवायाणसंबद्धा, कव्वकहा-गन्थत्थवित्थरविरइया,लोइय-वेयसमयपसिद्धा,उयाहरण-हेउ-कारणोववेया सा संकिण्णकह त्ति वुचइ । एयाणं च कहाणं तिविहा सोयारो हवन्ति । तं जहा-अहमा, मज्झिमा, उत्तम ति । तत्थ जे कोह-माण-माया-लोह-समाच्छाइयमई, परलोयदंसणपरंमुहा, इहलोगपरमत्थदंसिणो, निरणुकम्पा जीवेसु, ते तहाविहा तामसा अहमपुरिसा दुग्गइगमणकन्दुजयाए, सुगइपडिवक्खभूयाए, परमत्थी अणत्थबहुलाए अत्थकहाए अणुसजन्ति । जे उण सदाइविसयविसमोहियमणा,भावरिउ-इन्दियाणुकूलवत्तिणो, अभावियपरमत्थमग्गा, 'इमं सुन्दरं, इमं सुन्दरयरं' ति सुन्दरासुन्दरेसु अविणिच्छियमई, ते रायसा मज्झिमपुरिसा बुहजणोबहसणिज्जाए, विडम्बणमेत्तपडि-शौचा-ऽऽकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्यप्रधाना, अनुव्रत-दिगू-देशा-ऽनर्थदण्डविरति-सामायिक-पौषधो-पवासो-पभोग-परिभोगा-ऽतिभिसंविभागकलिता, अनुकम्पा-ऽकामनिर्जरादिपदार्थसंप्रयुक्ता सा 'धर्मकथा' इति (भण्यते) । या पुनरिवर्गोपादानसंबद्धा, काव्य-कथा-ग्रन्थार्थवि. स्तरविरचिता, लौकिक-वेदसमयप्रसिद्धा, उदाहरण हेतु-कारणोपेता सा 'संकीर्णकथा' इति उच्यते । एतासां च कथानां त्रिविधाः श्रोतारो भवन्ति । तद्यथा-अधमाः, मध्यमाः, उत्तमा इति । तत्र ये क्रोध-मान-माया-लोभसमाच्छादितमतयः, परलोकदर्शनपराङ्मुखाः, इहलोकपरमार्थदर्शिनः, निरनुकम्पा जीवेषु, ते तथाविधाः तामसा अधमपुरुषाः दुर्गतिगमन कन्दोद्यतायाम् , सुगतिप्रतिपक्षभूतायाम् , परमार्थतः अनर्थबहुलायाम्-अर्थकथायाम्-अनुपजन्ति । ये पुनः शब्दादिविषयमोहितमनसः, भावरिपु-इन्द्रियानुकूलवर्तिनः, अभावितपरमार्थमार्गाः, 'इदं सुन्दरम्' 'इदं सुन्दरतरम्' इति सुन्दराऽसुन्दरेपु अविनिश्चितमतयः, ते राजसा मध्यम पुरुषा बहुजनोपहसनीयायाम् ,
१ कन्दं (दे) दृढम्
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