________________
218
समालोचना : सूर्यप्रकाश व्यास
SAMBODHI काश्मीर शैव दर्शन का प्रमाण या ज्ञानविषयक न तो स्वतन्त्र ग्रन्थ मिलता है और न एकत्र सामग्री ।.... विषयानुरोध से प्रमाण-सम्बन्धी सन्दर्भ यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं ।
लेखक ने विविध ग्रन्थों में प्रकीर्ण इस सामग्री (उपजीव्य साहित्य) से जो सिद्धान्तमाला संग्रथित की है वह अभूतपूर्व व चमत्कृत करने वाली है। साथ ही काश्मीर शैव दर्शन
की तत्त्वमीमांसा को पुष्ट और समुद्ध करने वाली भी है। ४. लेखक के अनेक तुलनात्मक निष्कर्षों में यह निष्कर्ष सर्वाधिक सरल, सूत्ररूप और इस शास्त्र
के वैलक्षण्य को उद्घाटित करने वाला है कि यहाँ प्रमाता प्रमाण-व्यापार करने से पूर्व सिद्ध है और ज्ञानात्मक व्यापार के बाद भी उसकी सत्ता बनी रहती है। यही मान्यता अद्वैतवाद में प्रमाता और प्रमाण की महत्ता स्थापित करने का अवसर देती है और इसे तत्त्वमीमांसा से जोड़ती है। जबकि अद्वयवादी शून्यवाद में प्रमाता सापेक्ष माने जाता हैं और प्रमेयाभाव
में उसकी सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगता है। ५. लेखक ने प्रमाता को सप्रमाण ज्ञान-मीमांसा का केन्द्र सिद्ध करके उसकी पारमार्थिक और
औपचारिक भूमिका का निर्धारण किया है । प्रमाणमीमांसा में सौन्दर्यानुभूति का समावेश आचार्य अभिनवगुप्त की अनूठी अवधारणा है जिसका संक्षिप्त व्याख्यान लेखक ने अहं नीलं जानामि (पृ.३२) के द्वारा किया है। सहृदय
पाठक यहाँ विस्तर व्याख्या की अपेक्षा रखता है । ७. लेखक ने अपनी सीमाओं का सविनय स्वयं ही निर्धारण कर लिया है कि यहाँ शैवाचार्यो
के प्रमाण व उनके भेदों पर ही मुख्यतः ध्यान केन्द्रित किया जाएगा । अतः इस प्राथमिक स्तर पर तुलनात्मक विश्लेषण को प्रमुख पक्ष बनाने से परहेज किया गया है । तथापि जहाँजहा लेखक ने साधिकार संक्षिप्त तुलनात्मक टिप्पणियाँ की हैं वे पाठक के लिए विषय को ग्राह्य बनाने में सहायक हुई हैं जैसे ज्ञान के स्वरूप, प्रकार के विश्लेषण (अध्याय-२) में
न्याय, सांख्य, विज्ञानवाद, अद्वैत, देकार्त आदि का उल्लेख या उनसे तुलना । ८. काश्मीर शैव दर्शन की प्रमाण मीमांसा का प्रस्तुतीकरण अन्य दर्शनों या आचार्यो के प्रमाण
चिन्तन से निरपेक्ष रहकर करना सर्वथा असम्भव है क्योंकि इसकी तत्त्वमीमांसा की भाँति इसकी प्रमाणमीमांसा पर भी पूर्ववर्ती प्रमाणाचार्यों का प्रभाव है। उनसे वैलक्षण्य की स्थापना में भी प्रभाव को स्वीकारना उनके गौरव की हानि नहीं है । ग्रन्थ में वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, भर्तृहरि, पतंजलि आदि आचार्यो के मतों से जो तुलना की गई है वह स्वयं इनकी पुष्टि करती है। लेखक ने भी स्वीकार किया है कि काश्मीर शैव दर्शन की संकल्पना पर बौद्धों का रचनात्मक प्रभाव पड़ा है वहीं उसकी प्रक्रिया का सांचा सांख्य से लिया गया है (पृ.९७-८)। शब्दावली के भेद को बताते हुए कहा गया है कि इस शास्त्र में प्रत्यक्ष, अनुमिति,