Book Title: Samayik ka Swarup va Uski Samyak Paripalna Author(s): Kanhiyalal Dak Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 5
________________ खण्ड 4 : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्र वृन्दैः, यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः। यो गीयते वेद पुराण शास्त्रः, त देवदेवो हृदये ममास्ताम् / / अर्थात्-हे आत्मा ! जब तूने सामायिक व्रत को ग्रहण कर लिया है, तब तू इस प्रकार का चिन्तन कर कि संसार के जितने भी पर-पदार्थ हैं, वे मेरे नहीं हैं और न मैं उनका हूँ / इस प्रकार के विचारों से बाह्य-परपदार्थों के साथ के सम्बन्धों का परित्याग करके तू मुक्ति के मार्ग के लिये तैयार हो जा, अर्थात् अपनी आत्मा में स्थिर हो जा। जो वीतराग देव मुनीन्द्र वृन्दों के द्वारा सदा स्मरण किये जाते हैं, मनुष्य तथा देवता भी जिनकी सदा स्तुति करते हैं, वेद, पुराण तथा आगम, शास्त्र जिनकी महिमा का सदा गान करते हैं ऐसे परम विशुद्ध देवाधिदेव मेरे आत्म-मन्दिर में सदा अधिष्ठित हों, जिससे मेरी आत्मा भी उन जैसी पवित्र बन जाय / ___इस प्रकार से साधक की आत्मा में सतत भक्ति-पूर्ण निर्मल विचारों का झरना प्रवाहित होते रहने से सामायिक में स्वाभाविक रूप से लगने वाले मानसिक, वाचिक व कायिक दोषों से बचा जा सकता है और द्रव्य से तथा भाव से सामायिक शुद्ध और शुद्धतर बनती चली जाती है / इस प्रकार की निर्दोष सामायिक करने से जीवन में अद्भुत आनन्दानुभूति होती है। वह आनन्द अनिर्वचनीय है, केवल अनुभव-गम्य है। किसी भी व्रत या नियम को स्वीकार करने के पश्चात् उसका भंग न हो या किसी प्रकार की स्खलना न हो, इस ओर व्रती को सदा सचेष्ट रहना चाहिए या यों कहें कि व्रत का पालन करते समय किसी प्रकार के प्रमाद का सेवन न हो, इस ओर व्रती का सदा लक्ष्य होना चाहिए / अन्यथा सामायिक व्रत की आशातना या अवहेलना होने के साथ-साथ आत्म-वंचना भी होगी। कोई भी व्रत या अध्यात्म साधना किसी को दिखाने, प्रसन्न करने, मान-सम्मान प्राप्त करने, यशः-कीर्ति प्राप्त करने या धन-सम्पत्ति प्राप्त करने की अभिलाषा से नहीं की जाती है, व्रत-पालन करने में व्रतस्थ आत्मा का आत्म-सन्तोष ही प्रधान है, क्योंकि उस व्रत का प्रभाव उस आत्मा को ही अनुभव होगा, अन्य को नहीं / सामायिक व्रत का पालन करते हुए भी मन, वचन तथा काया सम्बन्धी दोषों के लगने की सम्भावना बनी रहती है, अतः उनका सावधानीपूर्वक वर्जन हो, आत्मा के परिणाम शुद्ध व निर्मल बने रहें, इस ओर सदा सचेष्ट रहना चाहिए / 'मैं सामायिक व्रत में हूँ,' इस बात की स्मृति साधक को निरन्तर बनाये रखनी चाहिए जिससे दुर्विचार, दुर्ध्यान और मन की चंचलता अपने आप समाप्त हो जाय / सामायिक के निर्धारित काल का भी अवश्य ध्यान रखना चाहिए, जिससे व्रती अपने आप यह निश्चय कर सके कि मैंने अपने चंचल मन को किस सीमा तक वश में कर लिया है / इसी प्रकार से साधना के क्षेत्र में मैं कितना और बढ़ सकता है ? सामायिक में करने लायक आवश्यक क्रियाओं को मैंने किया है या नहीं ? चविंशतिस्तव किया है या नहीं ? भगवदाज्ञा की सम्यक् प्रकार से आराधना की है या नहीं ? इन बातों का भी चिन्तन सामायिक में किया जाना चाहिए और भविष्य में ऐसा विशुद्ध चिन्तन करने के लिए संकल्पबद्ध होना चाहिए। जैसा कि ऊपर कहा गया है, सामायिक के 32 दोषों में से किसी का भी सेवन न हो, चार प्रकार की विकथाओं में से किसी का सेवन न किया जाय, चार प्रकार की संज्ञाओं (इच्छाओं) में से किसी संज्ञा का मानसिक स्पर्श न हो और व्रत-भंग करने के जो चार प्रकार हैं (अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार) उनमें से किसी का भी ज्ञात या अज्ञात अवस्था में सेवन न किया जाये तभी सामायिक की सम्यक् परिपालना हुई है, ऐसा कहा जा सकता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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