Book Title: Samayik ka Swarup va Uski Samyak Paripalna Author(s): Kanhiyalal Dak Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 4
________________ ६८ सामायिक का स्वरूप व उसकी सम्यक् परिपालना : पं० कन्हैयालाल 'दक' इत्वरिक सामायिक करने वाला साधक (श्रावक) अन्तरात्मा की साक्षी से संकल्प करता है कि हे प्रभो ! मैं एक मुहूर्त भर के लिए दो करण व तीन योग से सावध कार्यों का त्याग करता हूँ और प्राणिमात्र के साथ समभाव रखते हुए आत्म-साधना के लिए प्रवृत्त होता हूँ। यदि मेरे संकल्प-पूर्ति में किसी प्रकार की त्रुटि हो तो मैं इस व्रत-भंग स्वरूप पाप की स्वयं निन्दा करता हूँ, गुरु साक्षी से गर्दा करता हूँ और पाप से निवृत्त होता हूँ । सामायिक के स्वरूप को समझे, समझाए बिना आज संख्या-पूर्ति की दृष्टि से सामायिकों की स्पर्धा हो रही है, वे केवल बाह्य वेष-भूषा मात्र है। __ आचार्य अमितगति ने अपनी 'सामायिक द्वात्रिशिका' में सामायिक के साधक के लिए एक साधना-सूत्र की तरफ संकेत किया है । वह सूत्र (श्लोक) निम्न प्रकार है सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम् । माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ।। अर्थात्-हे जिनेश्वर देव ! मैं जब तक सामायिक व्रत में रहूँ, प्राणी मात्र के साथ मेरा मैत्रीभाव बना रहे, गुणीजनों को देखकर आनन्द और उल्लास का भाव जागृत हो, दुःखी प्राणियों को देखते ही मेरे हृदय में कृपा या दया का भाव उत्पन्न हो जाय, मुझसे शत्रुता का भाव रखने वालों के साथ भी मेरा माध्यस्थ भाव बना रहे, कभी द्वष का भाव हृदय को स्पर्श कर आत्मा को मलीन न बना दे, ऐसी आत्मिक शक्ति मुझे प्रदान करो। इस प्रकार का आध्यात्मिक चिन्तन तथा अभ्यास प्रत्येक साधक को करना चाहिए, चाहे वह श्रावक हो या साधु । आज स्थिति विपरीत है । सामायिक की गुणवत्ता की तरफ सबका उपेक्षा भाव है, केवल द्रव्य सामायिक को तरफ ही विशेष भार दिया जाता है, जिसमें आसन तथा मुंहपत्ति की प्रधानता है । आत्म-चिन्तन गौण है । सामायिक करने वाला सामायिक में बोले जाने वाले शब्दों या पाठों का न अर्थ जानता है और न अन्य किसी प्रकार का उसका गम्भीर चिन्तन ही है। सामायिक-काल में मौन स्वाध्याय का तो कहीं नामोनिशान भी नहीं है। श्रावक के १२ व्रतों में सामायिक एक शिक्षावत के रूप में जाना जाता है। इसे शिक्षाव्रत इसलिए कहा गया है कि सामायिक द्वारा प्राप्त किया जाने वाला समभाव अभ्यास द्वारा ही प्राप्त किया जाता हैं । आचार्य माणिक्यशेखर सूरि ने आवश्यकनियुक्ति में 'शिक्षा' शब्द का अर्थ निम्न प्रकार से दिया है : "शिक्षा नाम पुन: पुनरभ्यास:"- अर्थात् किसी वस्तु का पुनः-पुनः अभ्यास करना ही शिक्षा है । इस शिक्षा-व्रत में आत्मा को अन्तर्मुखी बनाने का निरन्तर अभ्यास करना होता है । यह अभ्यास कुछ दिनों या महीनों की साधना से नहीं, बल्कि वर्षों की और इससे भी आगे कई जन्मों की सतत-साधना और संस्कारों से फलीभूत हो सकता है । कषायों का समूल उच्छेदन करना दुष्कर कार्य है । बड़े-बड़े ऋषि, महर्षि तथा सन्त-मुनिराज भी राग-द्वष तथा कषायों से लिप्त हुए पाये जाते हैं । तेरा-मेरा की भावना वहाँ भी ज्यों की त्यों दिखाई देती है । ऐसी स्थिति में तीन करण व तीन योग से साध्वाचार का पालन कर पाना या यावज्जीवन शुद्ध सामयिक व्रत का पालन करना कैसे सम्भव है ? सामायिक के साधक को तो अहर्निश निम्न प्रकार से चिन्तन करना चाहिये न सन्ति बाह्या मम केचनार्था, भवामि तेषां न कदाचनाऽहम् । इत्यं विनिश्चित्य विमुच्य ब्राह्म, स्वस्थः त्वं भव भव ! मुक्त्यै ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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