Book Title: Samayik Sadhna aur Acharya Hastimalji Author(s): Fulchand Mehta Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 5
________________ • श्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. चाहिए । संसारी अवस्था में शरीरादि का, कर्मों का, राग-द्व ेषादि भाव कर्मों का, योग है जो पराधीनता है, आकुलता रूप है । जन्म-मरण रूप चतुर्गति के भयंकर दुःख का कारण है, इन सबका कारण संयोग है और संयोग कर्मों का है, देहादि का है तथा अन्य इन्द्रिय विषयभूत सामग्री का है। इनका भी मूल जीव का अपना ही राग-द्व ेष मोह अज्ञान भाव है । जीव इस दिशा में कितना पराधीन, परतन्त्र और दुःखी है कि किसी एक वस्तु का सुख भोगने के लिए उसकी आशा व इच्छा करता है । इच्छा चाह या राग करने के लिए कर्म का उदय चाहिये । कर्म के उदय के फलस्वरूप कोई न कोई वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति चाहिये और वह भी अनुकूल हो तो इच्छा या राग की पूर्ति होती है अन्यथा प्रतिकूल संयोगों से व्यथित हो जायगा । किन्तु स्वाधीनता में स्व के लक्ष्य से स्वभाव में आने में किसी भी पदार्थ की आवश्यकता नहीं है । भोग में कठिनाई है स्व उपयोग में कहीं कोई बाधा नहीं है । • २०३ वैसे प्रत्येक जीव साधक है, साधना कर रहा है और साधना भी दुःख से रहित होने की और सुख पाने की, शान्ति - आनन्द पाने की दृष्टि से कर रहा है । अनादि से जीव कर्म सहित है, कर्मों के कारण देह का धारण है और कर्म प्रवाह रूप से आत्मा से सम्बन्धित है, कोई कर्म अनादि से नहीं है । कर्म भी क्षणिक है, पौद्गलिक है, विनाशशील है, संयोगी होने से वियोग रूप है तो कर्म का फल देह, स्त्री, पुत्रादि का, धन वैभव का संयोग शाश्वत कहाँ से हो ? देह आदि की अवस्थाएँ स्पष्टतः प्रतिक्षण बदल रही हैं । जन्म, बचपन, युवानी, जरापना, बुढ़ापा, मृत्यु स्पष्ट अनुभत में आ रही है । इस देह की खुराक अर्थात् इन्द्रियों की खुराक पौद्गलिक है । वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, शब्दादि रूप है । जिनमें ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, संवेदनशीलता, चैतन्यता अंश मात्र भी नहीं है जबकि प्रात्मा रूपी, अरसी, अस्पर्शी, अगंधमय, शब्दमय, अतीन्द्रिय है, अजर, अमर, अविनाशी है, ज्ञान, दर्शन लक्ष से युक्त है । मात्र इसे अपनी शक्ति का, वैभव का, चैतन्य रूप अनन्त ऐश्वर्य का भान नहीं होने से राग, द्वेष, मोह रूप वैभाविक दशा में चतुर्गति रूप संसार में त्रिविध ताप से तपित महादुःख उठा रही है । स्वरूप का बेभान होने का नाम ही मोह है, अज्ञान है । इन्हीं से परद्रव्यों में सुख की कल्पना कर, राग, द्वेष कर, कर्म बन्धन कर, जन्म-मरण की श्रृंखला से आप्लावित है । जड़ पदार्थों में सुख नाम का गुण ही नहीं है और वहां सुख खोज रहा है । कहीं अनुभव करता है और दुःख क्लेश उत्पन्न हो जाता है यही नहीं, महा अनर्थकारी दुःख की श्रृंखला खड़ी कर रहा है । जो सुख क्षणिक लगता है वह भी सुखाभास है । सुख क्या है, दुःख क्या है, इसका परिज्ञान नहीं होने से अन्य संयोगों में ही सुख मान कर, मोह रूपी मदिरा के वशीभूत भटक रहा है । यह भी साधना है किन्तु दु-ख की कारण है । विभाव दशा है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7