Book Title: Samayik Sadhna aur Acharya Hastimalji Author(s): Fulchand Mehta Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 4
________________ • २०२ • ब्रह्मचर्य आदि दश विधि लक्षण धर्म हैं जिनसे सामायिक की सच्ची पहचान होती है । ऐसे साधक के नियम से अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पाँच समिति, तीन गुप्ति, बाईस प्रकार के परीषहों को जीतने की सामर्थ्य, बारह प्रकार के तपश्चरण की योग्यता होती है । स्वाध्याय - ध्यान ही मुख्य रूप से सामायिक की खुराक है । सामायिक की त्रिकरण त्रियोग से आराधना होती है, संवर - निर्जरा का परम मुख्य साधन सामायिक है । अतः सामायिक साधना भी है । व्यक्तित्व एवं कृतित्व सम्यक् श्रद्धा भवेतत्र, सम्यक ज्ञानं प्रजाये । सम्यक् चारित्र - सम्प्राप्ते, योग्यिता तत्र जायते ॥ अर्थात् सम्यक् चारित्र रूप सामायिक का मूल आधार सम्यक् श्रद्धा व सम्यक् ज्ञान है । इनके बिना चारित्र नहीं होता, समभाव की उत्पत्ति नहीं होती । श्रद्धा, ज्ञान व चारित्र की एकता ही मोक्ष मार्ग है। ये तीनों आत्मा के निजी गुण हैं । सामायिक मन, वचन, काया के सर्व ३२ दोषों से रहित, सर्व १८ पापों से रहित, शुद्ध आत्मस्वरूप है । यह सर्व कषायों की, कर्मों की नाशक है । सामायिक में साधक जितनी - जितनी स्थिरता, समभाव, सहजभाव बढ़ाता जाता है, उतना उतना विशुद्ध सुविशुद्ध समभाव - वीतरागता बढ़ती जाती है और कषाय, क्लेशहीन होता हुआ घटता जाता है और अन्त में क्षय हो जाता है। Jain Educationa International सामायिक द्रव्य क्षेत्र - काल- भाब तथा मन, वचन, काया इस तरह सात प्रकार की शुद्धिपूर्वक होती है । द्रव्य से व भाव से, व्यवहार से व निश्चय से सामायिक आराधना होती है । स्व द्रव्य याने मात्र चैतन्य द्रव्य गुण पर्यायों में स्थिर भेद स्वभावमय, क्षेत्र अपने ही असंख्यात प्रदेशों में समता, काल स्वसमयात्मक व भाव से स्वभाव रूप शुद्ध परिणामी, मन से विकारों से रहित, वचन से विकथाओं से मुक्त, काया से स्थिर आसनजय काय क्लेश तप सहित मात्र आत्म स्वरूप में स्थित होना सामायिक है । साधना का स्वरूप : साध्य है द्रव्य कर्म, भाव कर्म व शरीरादि से पृथक् मात्र शुद्ध निर्विकल्प, निरावरणमय, शुद्ध, बुद्ध, निर्मल, निर्विकारी, अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सामर्थ्य से युक्त सिद्ध दशा । जब साध्य सर्वोत्कृष्ट शुद्ध आत्म पद है तो साधना भी उत्कृष्ट-प्रकृष्ट निर्मल, सहज, स्वाभाविक, स्वाधीन, अपूर्व, अनुपम, द्वितीय होनी चाहिये | साध्य स्वाधीन दशा है जहाँ पर द्रव्य का परभावों का योग नहीं तो साधना भी स्वावलम्बन से, स्वाधीनता से निज आत्मस्वरूपमय होनी For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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