Book Title: Samaya Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 2
________________ कुन्दकुन्द-भारती आगे आत्मद्रव्यका एकत्वपना सुलभ नहीं है यह प्रकट करते हैं सुपरिचिदाणुभूदा, सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा। एयत्तस्सुवलंभो, णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।।४।। कामभोग और बंधकी कथा सभी जीवोंके श्रुत है, परिचित है और अनुभूत है, परंतु पर पदार्थोंसे पृथक् एकत्वकी प्राप्ति सुलभ नहीं है। ___ यह जीव काम, भोग और बंधसंबंधी चर्चा अनादिकालसे सुनता चला आ रहा है, अनादिसे उसका परिचय प्राप्त कर रहा है और अनादिसे ही उसका अनुभव करता चला आ रहा है, इसलिए उसकी सहसा प्रतीति हो जाती है। परंतु यह जीव संसारके समस्त पदार्थोंसे जुदा है और अपने गुणपर्यायोंके साथ एकताको प्राप्त हो रहा है ... यह कथा इसने आजतक नहीं सुनी, न उसका परिचय प्राप्त किया और न अनुभव ही। इसलिए वह दुर्लभ वस्तु बनी हुई है।।४।। आगे आचार्य उस एकत्व विभक्त आत्माका निर्देश करनेकी प्रतिज्ञा करते हुए अपनी लघुता प्रकट करते हैं -- तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण। जदि दाएज्ज पमाणं, चुक्किज्ज छलं ण घेत्तव्वं ३ ।।५।। मैं अपने निजविभवसे उस एकत्व विभक्त आत्माका दर्शन कराता हूँ। यदि दर्शन करा सकूँ -- उसका उल्लेख करा सकूँ तो प्रमाण मानना और कहीं चूक जाऊँ तो मेरा छल नहीं ग्रहण करना।।५।। आगे वह शुद्धात्मा कौन है? यह कहते हैं -- ण वि होदि अप्पमेत्तो, ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो। एवं भणंति सुद्धं णाओ " जो सो उ सो चेव।।६।। जो ज्ञायक भाव है अर्थात् ज्ञानस्वरूप शुद्ध जीवद्रव्य है वह न अप्रमत्त है और न प्रमत्त ही है। इस प्रकार उसे शुद्ध कहते हैं, वह तो जैसा जाना गया है उसी रूप है। जो जीव पर पदार्थके संबंधसे अशुद्ध हो रहा है उसीमें प्रमत्त और अप्रमत्तका विकल्प सिद्ध होता है, परंतु जो पर पदार्थके संबंधसे विविक्त है वह केवल ज्ञायक ही है -- ज्ञाता-दृष्टा ही है।।६।। आगे जिस प्रकार प्रमत्त अप्रमत्तके विकल्पसे जीवमें अशुद्धपना आता है उसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र आत्माके हैं इस कथनसे भी आत्मामें अशुद्धपना सिद्ध होता है इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं -- ३. घित्तव्वं ज. वृ. । १. विभत्तस्स ज. वृ. । २... विभत्तं ज. वृ. । ज. वृ. । ४. सुद्धा ज. वृ. ५. णादा

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