Book Title: Samantbhadra Vichar Dipika
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 13
________________ समन्तभद्र-विचार-दीपिका प्रकार दूसरी वस्तुअोके विषयमे भी एकान्त हठ पकड़ने वालोंको म्व-पर-वैरी समझना चाहिये। ___ मच पूछिये तो जो अनेकान्तके द्वेषी है वे अपने एकान्तके भी द्वेपी है, क्योकि अनेकान्नके बिना वे एकान्तका प्रतिष्टित नहीं कर सकते-अनेकान्तके विना एकान्तका अस्तित्व उसी तरह नहीं बन सकता जिस तरह कि सामान्यके बिना विशेषका या द्रव्यके बिना पर्यायका अस्तित्व नहीं बनता । मामान्य और विशेप, अस्तित्व और नास्तित्व तथा नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म जिस प्रकार परस्परम अविनाभाव-सम्बन्धको लिये हुए है - एकके बिना दूमरेका सद्भाव नहीं बनता ---उसी प्रकार एकान्त और अनेकान्तमे भी परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध है । ये सब मप्रतिपक्षधर्म एक ही वस्तुम परस्पर अपेक्षाको लिग हुए होते है। उदाहरणके तौरपर अनामिका अंगुली छोटी भी है और बड़ी भी-कनिष्प्रामे वह बड़ी है और मध्यमाम छोटी है । इस तरह अनामिका में छोटापन और बडापन दोनो धर्म सापेक्ष है, अथवा छोटी है और छोटी नहीं है स छोटेपन अस्तित्व और नास्तित्वम्पदा अविनाभावी धर्म भी उसमें सापेक्षरूपले पाये जाते है अपनाया छोट देनपर दोनोमग को भी नर्म नही बनता। इसी प्रकार नदीक प्रत्येक नट में हम पारपन चोर उस पारपनके दोनो धर्म होने के और व सापेन हनिम हा अविरोधरूप रहते है । जो धर्म एक ही वस्तुम परन्तर अपेक्षाको लिये हा होत है वे अपने और दुसरेके उपकारी ( मित्र ) हाते : और अपनी तथा दरसरेकी सत्ताको बनाये रत्वते है। गौर ना धर्म परम्पर अपेक्षाको लिये नहीं होते वे अपने और दूसरेक अपकारी ( शत्रु) लात है.--स्व-पर-प्रणाशक होते है, और इमलिये न अपनी सत्ताको कायम रस सकते है और न दसकी। इमीसे स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयंभूस्तोत्रमे भी

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