Book Title: Samantbhadra Vichar Dipika
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 21
________________ १८ समन्तभद्र-विचार-दीपिका जिसमे इच्छा-बुद्धिका प्रयोग ही नहीं बल्कि सद्भाव ( अस्तित्व ) भी नहीं अथवा किसी समय उसका संभव भी नहीं है । ऐसे इच्छाशून्य तथा बुद्धिविहीन कर्ता कार्याके प्राय. निमित्तकारण ही होते है और प्रत्यक्षरूपमे तथा अप्रत्यक्षरूपमें उनके कर्ता जड और चेतन दोनो ही प्रकारके पदार्थ हा करते है । इस विषयके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जाते है, उन पर जरा ध्यान दीजिये - (१) 'यह दवाडे अमुक रागका हरने वाली है। यहाँ दवाइम कोई इच्छा नहीं और न बुद्धि है, फिर भी वह रागको हरनेवाली है-रोगहरण कार्यकी कर्ता कही जाती है; क्योंकि उसके निमित्तसे रोग दूर होता है। (२) 'इस रमायनके प्रमादसे मुझे निरोगताकी प्राप्ति हुई।' यहाँ 'रसायन' जड़ औपधियोका समूह होनेसे एक जड पदार्थ है, उसमे न इच्छा है, न बुद्धि और न कोई प्रसन्नता; फिर भी एक रोगी प्रसन्नचित्तसे उस रसायनका सेवन करके उसके निमित्तम आरोग्य-लाभ करता है और उस रसायनम प्रसन्नताका आरोप करता हुआ उक्त वाक्य कहता । यह सब लाकव्यवहार है अथवा अलकारकी भाषामे कहनेका एक प्रकार है । इसी तरह यह भी कहा जाता है कि 'मुझे इस रसायन या दवाई ने अच्छा कर दिया' जब कि उसने बुद्धिपूर्वक या इन्छापूर्वक उसके शरीरमं कोई काम नही किया । हाँ उसके निमित्तसे शरीरम रोगनाशक तथा आरोग्यवर्धक कार्य जरूर हुआ है और इसलिये वह उसका कायं कहा जाता है। (३) एक मनुप्य छत्री लिये जा रहा था और दूसरा मनुप्य निना छत्रीक सामनेसे पा रहा था। सामनेवाले मनुष्यकी दृष्टि जब छत्रीगर पड़ी तो उसे अपनी छत्रींकी याद आगई ओर यह स्मरण हो पाया कि 'मैं अपनी छत्री अमुक दुकानपर भूल आया हूँ; चुनॉचे वह तुरन्त वहाँ गया और अपनी छत्री ले

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