Book Title: Samaj Sudhar Ki Swarnim Rekhaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 7
________________ साध्वियों को वही स्थान दिया, जो साधुओं को प्राप्त था और श्राविकाओं को भी उसी ऊँचाई पर पहुँचाया, जिस पर श्रावक आसीन थे। भगवान् ने किसी भी योग्य अधिकार से महिला जाति को वंचित नहीं किया-पुरुषों के समान ही उसे गरिमा दी गई। बलिप्रथा का विरोध: यज्ञ के नाम पर हजारों पशुओं का बलिदान किया जा रहा था। पशुओं पर घोर अत्याचार हो रहे थे, घोर पाप का राज्य छाया हुआ था और समाज के पशुधन का कत्लेपाम हो रहा था। यज्ञों में हिंसा तो होती ही थी, उसके कारण राष्ट्र की आर्थिक स्थिति भी डाँवाडोल हो रही थी। भगवान् ने इन हिंसात्मक यज्ञों का स्पष्ट शब्दों में विरोध किया। उस समय समाज की बागडोर ब्राह्मणों के हाथ में थी। राजा क्षत्रिय थे। और वे प्रजा पर शासन करते थे, किन्तु राजा पर भी शासन ब्राह्मणों का था। इस रूप में उन्हें राजशक्ति भी प्राप्त थी और प्रजा के मानस पर भी उनका आधिपत्य था। वास्तव में ब्राह्मणों का उस समय बड़ा वर्चस्व था, यज्ञों की बदौलत ही हजारों-लाखों ब्राह्मणों का भरण-पोषण हो रहा था। ऐसी स्थिति में, कल्पना की जा सकती है कि भगवान् महावीर के यज्ञविरोधी स्वर का कितना प्रचण्ड विरोध हुआ होगा! खेद है कि उस समय का कोई क्रमबद्ध इतिहास हमें उपलब्ध नहीं है, जिससे हम समझ सकें कि यज्ञों का विरोध करने के लिए भगवान महावीर को कितना संघर्ष करना पड़ा और क्या-क्या सहन करना पड़ा। फिर भी आज जो सामग्री उपलब्ध है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उनका डटकर विरोध किया गया और खूब बुरा-भला कहा गया। पुराणों के अध्ययन से विदित होता है कि उन्हें नास्तिक और प्रासुरी प्रकृति वाला तक कहा गया और अनेक तिरस्कारपूर्ण शब्द-बाणों की भेंट चढ़ाई गई। उन पर समाज के प्रादर्श को भंग करने का दोषारोपण तक भी किया गया। फलों का नहीं, शलों का मार्ग : अभिप्राय यह है कि अपमान का उपहार तो तीर्थंकरों को भी मिला है। ऐसी स्थिति में हम और आप यदि चाहें कि हमें सब जगह सम्मान ही सम्मान मिले, तो यह कदापि संभव नहीं। समाज-सुधारक का मार्ग फूलों का नहीं, शूलों का मार्ग है। उसे सम्मान पाने की अभिलाषा त्याग कर अपमान का आलिंगन करने को तैयार होना होगा, उसे प्रशंसा की इच्छा छोड़कर निन्दा का जहर पीना होगा, फिर भी शान्त और स्थिर भाव से सुधार के पथ पर अनवरत चलते रहना होगा। समाज-सुधारक एक क्रम से चलेगा। वह प्राज एक सुधार करेगा, तो कल दूसरा सुधार करेगा। पहले छोटे-छोटे टीले तोड़ेगा, फिर एक दिन हिमालय भी तोड़ देगा। जागति और साहस : इस प्रकार, नई जागृति और साहसमयी भावना लेकर ही समाज-सुधार के पथ पर अग्रसर होना पड़ेगा और अपने जीवन को प्रशस्त बनाना पड़ेगा। यदि ऐसा न हुआ, तो समाज-सुधार की बात भले कर ली जाएँ, किन्तु वस्तुतः समाज का सुधार नहीं हो पाएगा। समाज-सुधार का मूल-मन्त्र : शिश जब माँ के गर्भ से जन्म लेकर भूतल पर पहला पग रखता है, तभी से समष्टिजीवन के साथ उसका गठबन्धन प्रारम्भ हो जाता है। उसका समाजीकरण उसी उषाकाल से होना प्रारम्भ हो जाता है। जिस प्रकार सम्पूर्ण शरीर से अलग किसी अवयवविशेष का कोई महत्त्व नहीं होता, उसी प्रकार व्यक्ति का भी समाज से भिन्न कोई अस्तित्व समाज-सुधार को स्वर्णिम-रेखाएँ ३६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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