Book Title: Samaj Sudhar Ki Swarnim Rekhaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 5
________________ समाज- सबक का कर्तव्य : काल-प्रवाह में बहते - बहते जो रिवाज सड़ गल गए हैं, उनके प्रति समाज को एक प्रकार से चिरंतनता का मोह हो जाता है । समाज परम्परा के सड़े-गले शरीर को भी छाती से चिपका कर चलना चाहता है । यदि कोई चिकित्सक उन सड़े-गले हिस्सों को अलग करना चाहता है, समाज को रोग से मुक्त करना चाहता है और ऐसा करके समाज के जीवन की रक्षा करना चाहता है, तो समाज तिलमिला उठता है, चिकित्सक को गालियाँ देता है और उसका अपमान करता है । किन्तु उस समय समाज सेवक का क्या कर्तव्य है ? उसे यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं जिस समाज की भलाई के लिए काम करता हूँ, वह समाज मेरा अपमान करता है, तो मुझे क्यों इस झंझट में पड़ना चाहिए ? मैं क्यों आगे ऊँ ? उसका कर्तव्य है कि वह प्रसन्नता से अपमान के विष को पीए और समाज को मंगल-कल्याण का अमृत पिलाए । नेतृत्व का सही मार्गः जब तक मनुष्य सम्मान पाने और अपमान से बचने का भाव नहीं त्याग देता, तब तक वह समाज उत्थान के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। ऐसा मनुष्य कभी समाज-सुधार के लिए नेतृत्व नहीं ग्रहण कर सकता । स्पष्ट है कि यदि कोई व्यक्ति यह चाहता है कि समाज में वह जागृति और क्रांति लाए, उसके पुराने ढाँचे को तोड़ कर नया ढाँचा प्रस्तुत करे, तो आगे आने के लिए उसे पहले पहल अपमान की कड़ी चोट सहनी ही पड़ेगी। यदि नहीं सहेगा, तो वह आगे नहीं बढ़ पाएगा। भारत के मनीषियों का कहना है, कर्तव्य क्षेत्र में अपमान को आगे रखो और सम्मान को पीठ पीछे -- "अपमानं पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठतः" अपमान को देवता मरनो : यदि व्यक्ति समाज में क्रान्ति लाना चाहता है और समाज में नव-जीवन पैदा करना चाहता है, तो वह अपमान को देवता मानकर चले और यह समझ ले कि जहाँ भी जाऊँगा, मुझे अपमान का स्वागत करना पड़ेगा । वह सम्मान की ओर से पीठ फेर ले और समझ ले कि सारी जिन्दगी भर सम्मान से मुझे भेंट नहीं होने वाली है । और यह भी कि ईसा की तरह शूली पर चढ़ना होगा, फूलों की सेज पर बैठना मेरे भाग्य में नहीं बदा है । यदि ऐसी लहर लेकर चलेगा तभी व्यक्ति समाज का सही रूप से निर्माण कर सकेगा, अन्यथा नहीं । मनुष्य टूटी-फूटी चीज को जल्दी सुधार देता है, और जब उस पर रंग-रोगन करना होता है, तो भी जल्दी कर देता है और उसे सुन्दर रूप से सजा कर खड़ी कर देता है। दीवारों पर चित्र बनाने होते हैं, तो सहज ही बना लिए जाते हैं। एक कलाकार लकड़ी या पत्थर का टुकड़ा लेता है और उसे काट-छांट कर शीघ्र मूर्ति का रूप दे देता है । कलाकार के अन्तस्तल में जो भी भावना निहित होती है, उसी को वह मूर्त रूप में परिणत कर देता है । क्योंकि ये सब चीजें निर्जीव हैं, वे कर्ता का प्रतिरोध नहीं करती हैं, कर्ता की भावना के अनुरूप बनने में वे कोई हिचकिचाहट पैदा नहीं करती हैं । किन्तु समाज ऐसा नहीं है । वह निर्जीव नहीं है। उसे पुरानी चीजों को पकड़ रखने का मोह है, हठ है । जब कोई भी समाज सुधारक उसे सुन्दर रूप में बदलने के लिए प्रयत्न करता है, तो समाज काठ की तरह चुपचाप नहीं रह जाएगा कि कोई भी आरी चलाता रहे और वह कटता रहे। समाज की ओर से विरोध होगा और सुधारक को उसका डटकर सामना करना पड़ेगा । समाज सुधारक के अन्तर्मन में यह वज्र साहस होना ही चाहिए कि लोग गालियां देते रहें, और वह हंसता रहे । समाज-सुधार की स्वर्णिम - रेखाएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३६७ www.jainelibrary.org.

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