Book Title: Samadhimaran Ek Tulnatmak tatha Rachnakal evam Rachayita Author(s): Criticism Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 2
________________ समाधिमरण ( मृत्युवरण) एक तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन वैदिक परम्परा वैदिक परम्परा में मृत्युवरण उपरोक्त सभी प्रकार के समाधि मरणों में मन का समभाव में स्थित होना अनिवार्य माना गया है। समाधिमरण ग्रहण करने की विधि जैन आगमों में समाधिमरण ग्रहण करने की विधि निम्नानुसार बताई गयी है— सर्वप्रथम मलमूत्रादि अशुचि विसर्जन के स्थान का अवलोकन कर नरम तृणों की शैय्या तैयार कर ली जाती है। तत्पश्चात् अरिहन्त, सिद्ध और धर्माचार्यों को विनयपूर्वक नमस्कार कर पूर्वगृहीत प्रतिज्ञाओं में लगे हुए दोषों की आलोचना और उनका प्रायश्चित ग्रहण किया जाता है। इसके बाद समस्त प्राणियों से क्षमा-याचना की जाती है और अन्त में अठारह पापस्थानो, अन्नादि चतुर्विध आहारों का त्याग करके शरीर के ममत्व एवं पोषणक्रिया का विसर्जन किया जाता है। साधक प्रतिज्ञा करता है कि मैं पूर्णत: हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से विरत होता हूँ, अन्न आदि चारो प्रकार के आहार का यावज्जीवन के लिए त्याग करता हूँ। मेरा यह शरीर जो मुझे अत्यन्त प्रिय था, मैने इसकी बहुत रक्षा की थी, कृपण के धन के समान इसे सम्भालता रहा था, इस पर मेरा पूर्ण विश्वास था कि यह मुझे कभी नहीं छोड़ेगा), इसके समान मुझे अन्य कोई प्रिय नहीं था, इसलिए मैने इसे शीत, गर्मी, क्षुधा, तृष्णा आदि अनेक कष्टों से एवं विविध रोगों से बचाया और सावधानीपूर्वक इसकी रक्षा करता रहा था, अब मैं इस देह का विसर्जन करता हूँ और इसके पोषण एवं रक्षण के प्रयासों का परित्याग करता हूँ। बौद्ध परम्परा में मृत्युवरण यद्यपि बुद्ध ने जैन परम्परा के समान ही धार्मिक आत्महत्याओं को अनुचित माना है, तथापि बौद्ध साहित्य में कुछ ऐसे सन्दर्भ अवश्य हैं जो स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन करते है। संयुक्तनिकाय में असाध्य रोग से पीड़ित भिक्षु वक्कलि कुलपुत्र भिक्षु छत्र' द्वारा की गई आत्महत्याओं का समर्थन स्वयं बुद्ध ने किया था और उन्हें निर्दोष कह कर दोनो ही भिक्षुओं को परिनिर्वाण प्राप्त करने वाला बताया था। जापानी बौद्धों में तो आज भी हरीकरी की प्रथा मृत्युवरण की सूचक है। फिर भी जैन परम्परा और बौद्ध परम्परा में मृत्युवरण के प्रश्न को लेकर कुछ अन्तर भी है प्रथम तो यह कि जैन परम्परा के विपरीत बौद्ध परम्परा में शस्त्रवध से तत्काल ही मृत्युवरण कर लिया जाता है। जैन आचार्यों ने शस्त्रवध के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण का विरोध इसलिए किया था कि उन्हें उसमें मरणाकांक्षा की सम्भावना प्रतीत हुई। उनके अनुसार यदि मरणाकांक्षा नहीं है तो फिर मरण के लिए उतनी आतुरता क्यों? इस प्रकार जहाँ बौद्ध परम्परा शस्त्रवध के द्वारा की गई आत्महत्या का समर्थन करती है, वहीं जैन परम्परा उसे अस्वीकार करती है। इस सन्दर्भ में बौद्ध परम्परा वैदिक परम्परा के अधिक निकट है। Jain Education International ४२१ सामान्यतया हिन्दू धर्मशास्त्रों में आत्महत्या को महापाप माना गया है। पाराशरस्मृति में कहा गया है कि जो क्लेश, भय, घमण्ड और क्रोध के वशीभूत होकर आत्महत्या करता है, यह साठ हजार वर्ष तक नरकवास करता है, १° लेकिन इनके अतिरिक्त हिन्दू धर्मशास्त्रों में ऐसे भी अनेक सन्दर्भ हैं जो स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन करते हैं। प्रायश्चित्त के निमित्त से मृत्युवरण का समर्थन मनुस्मृति (११/ ९०-९१) याज्ञवल्क्यस्मृति (३ / २५३, गौतमस्मृति ( २३/१), वशिष्ठधर्मसूत्र (२०/२२ १३/१४) और आपस्तंबसूत्र (१/९/२५/ १-३, ६) में भी किया गया है मात्र इतना ही नहीं, हिन्दू धर्मशास्त्रों में ऐसे भी अनेक स्थल हैं, जहाँ मृत्युवरण को पवित्र एवं धार्मिक आचरण के रूप में देखा गया है। महाभारत के अनुशासनपर्व (२५/ ६२-६४), वनपर्व (८५/८३) एवं मत्स्यपुराण (१८६/३४/३५) में अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषयप्रयोग या उपवास आदि के द्वारा देह त्याग करने पर ब्रह्मलोक या मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा माना गया है। अपरार्क ने प्राचीन आचार्यों के मत को उद्धृत करते हुए लिखा है कि यदि कोई गृहस्थ असाध्य रोग से पीड़ित हो, जिसने अपने कर्तव्य पूरे कर लिए हों, वह महाप्रस्थान हेतु अग्नि या जल में प्रवेश कर अथवा पर्वतशिखर से गिरकर अपने प्राणों की आहुति दे सकता है। ऐसा करके वह कोई पाप नहीं करता। उसकी मृत्यु तो तपों से भी बढ़कर है। शास्त्रानुमोदित कर्तव्यों के पालन में अशक्त होने पर जीवन जीने की इच्छा रखना व्यर्थ है। श्रीमदभागवत के ११ वें स्कन्ध के १८ वें अध्याय में भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण को स्वीकार किया गया है। वैदिक परम्परा में स्वेच्छा मृत्युवरण का समर्थन न केवल शास्त्रीय आधारों पर हुआ है वरन् व्यावहारिक जीवन में इसके अनेक उदाहरण भी परम्परा में उपलब्ध हैं। महाभारत में पाण्डवों के द्वारा हिमालय यात्रा में किया गया देहपात मृत्युवरण का एक प्रमुख उदाहरण है । डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे ने वाल्मीकि रामायण एवं अन्य वैदिक धर्मग्रन्थों तथा शिलालेखों के आधार पर शरभंग, महाराजा रघु, कलचुरी के राजा गांगेय, चंदेल कुल के राजा गंगदेव, चालुक्यराज सोमेश्वर आदि के स्वेच्छा मृत्युवरण का उल्लेख किया है। मैगस्थनीज ने भी ईश्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में प्रचलित स्वेच्छामरण का उल्लेख किया है। प्रयाग में अक्षयवट से कूद कर गंगा में प्रणान्त करने की प्रथा तथा काशी में करवत लेने की प्रथा वैदिक परम्परा में मध्य युग तक भी काफी प्रचलित थी । यद्यपि ये प्रथाएँ आज नामशेष हो गयी हैं फिर भी वैदिक संन्यासियों द्वारा जीवित समाधि लेने की प्रथा आज भी जनमानस की श्रद्धा का केन्द्र है। इस प्रकार हम देखते है कि न केवल जैन और बौद्ध परम्पराओं में, बरन् वैदिक परम्परा में भी मृत्युवरण को समर्थन दिया गया है। लेकिन जैन और वैदिक परम्पराओं में प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ वैदिक परम्परा में जल एवं अग्नि से प्रवेश, गिरिशिखर से गिरना, विष या शस्त्र प्रयोग आदि विविध साधनों से मृत्युवरण का विधान मिलता है, वहाँ जैन परम्परा में सामान्यतया केवल उपवास द्वारा ही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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