Book Title: Samadhimaran Ek Tulnatmak tatha Rachnakal evam Rachayita Author(s): Criticism Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 1
________________ समाधिमरण (मृत्युवरण) : एक तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन जैन परम्परा के सामान्य आचार नियमों में संलेखना या संथारा समाधिमरण के भेद आगम (मृत्युवरण) एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। जैन गृहस्थ उपासकों एवं श्रमण जैन आगम ग्रन्थों में मृत्युवरण के अवसरों की अपेक्षा के आधार साधकों दोनों के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का विधान जैन आगमों पर समाधि-मरण के दो प्रकार माने गये है- १. सागारी संथारा, में उपलब्ध है। जैन आगम साहित्य ऐसे साधकों की जीवन गाथाओं और २. सामान्य संथारा। से भरा पड़ा है जिन्होंने समाधिमरण का व्रत ग्रहण किया था। सागारी संथारा : जब अकस्मात् कोई ऐसी विपत्ति अन्तकृत्दशांगसूत्र एवं अनुत्तरोपातिकसूत्र में उन श्रमण साधकों का उपस्थित हो, जिसमें से जीवित बच निकलना सम्भव प्रतीत न हो, और उपासकदशांगसूत्र में आनन्द आदि उन गृहस्थ साधकों का जीवन जैसे आग में गिर जाना, जल में डूबने जैसी स्थिति हो जाना दर्शन उपलब्ध है, जिन्होंने अपने जीवन की संध्या-वेला में समाधि-मरण अथवा हिंसक पुशु या किसी ऐसे दुष्ट व्यक्ति के अधिकार में फँस का व्रत लिया था। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार मृत्यु के दो रूप हैं- जाना जहाँ सदाचार से पतित होने की सम्भावना हो, ऐसे संकटपूर्ण १. समाधिमरण या निर्भयतापूर्वक मृत्युवरण और २. भयपूर्वक मृत्यु अवसरो पर जो संथारा, ग्रहण किया जाता है, वह सागारी संथारा से ग्रसित हो जाना। समाधिमरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता कहलाता है। यदि व्यक्ति उस विपत्ति या संकटपूर्ण स्थिति से बाहर है, जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है। हो जाता है तो वह पुन: देह-रक्षण के सामान्य क्रम को चालू रख पहले को पण्डितमरण कहा गया है जबकि दूसरे को बालमरण सकता है। संक्षेप में अकस्मात् मृत्यु का अवसर उपस्थित हो जाने (अज्ञानीमरण) कहा गया है। एक ज्ञानीजन की मौत है, दूसरी अज्ञानी पर जो संथारा ग्रहण किया जाता है, वह सागारी संथारा मृत्यु-पर्यन्त की। अज्ञानी विषयासक्त होता है और इसलिए वह मृत्यु से डरता के लिए नहीं, वरन् परिस्थिति विशेष के लिए होता है अत: उस परिस्थिति है, जबकि सच्चा ज्ञानी अनासक्त होता है अत: वह मृत्यु से नहीं डरता विशेष के समाप्त हो जाने पर उस व्रत की मर्यादा भी समाप्त हो है। जो मृत्यु से भय खाता है, उससे बचने के लिए भागा-भागा फिरता जाती है। है, मृत्यु भी उसका सदैव पीछा करती रहती है, लेकिन जो निर्भय सामान्य संथारा : जब स्वाभाविक जरावस्था अथवा असाध्य हो मृत्यु का स्वागत करता है, उसे आलिंगन करता है, मृत्यु उसके रोग के कारण पुन: स्वस्थ होकर जीवित रहने की समस्त आशाएँ लिए निरर्थक हो जाती है। जो मृत्यु से भय खाता है, वह मृत्यु का धूमिल हो गयी हों, तब यावज्जीवन तक जो देहासक्ति एवं शरीरशिकार होता है, लेकिन जो मृत्यु से निर्भय हो जाता है वह अमरता पोषण के प्रयत्नों का त्याग किया जाता है और जो देहपात पर ही की दिशा में आगे बढ़ जाता है। साधकों के प्रति महावीर का सन्देश पूर्ण होता है वह सामान्य संथारा है। सामान्य संथारा ग्रहण करने के यही था कि मृत्यु के उपस्थित होने पर शरीरादि से अनासक्त होकर लिए जैन आगमों में निम्न स्थितियाँ आवश्यक मानी गयी हैंउसे आलिंगन दे दो। महावीर के दर्शन में अनासक्त जीवन शैली जब शरीर की सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्यों के सम्पादन करने की यही महत्त्वपूर्ण कसौटी है, जो साधक मृत्यु से भागता है, वह में अयोग्य हो गयी हों, जब शरीर का माँस एवं शोणित सूख जाने सच्चे अर्थ में अनासक्त जीवन जीने की कला से अनभिज्ञ है। जिसे से शरीर अस्थिपंजर मात्र रह गया हो, पचन-पाचन, आहार-निहार आदि अनासक्त मृत्यु की कला नहीं आती उसे अनासक्त जीवन की कला शारीरिक क्रियाएँ शिथिल हो गयी हों और इनके कारण साधना और भी नहीं आ सकती। इसी अनासक्त मृत्यु की कला को महावीर ने संयम का परिपालन सम्यक् रीति से होना सम्भव नहीं हो, इस प्रकार संलेखना व्रत कहा है। जैन परम्परा में संथारा, संलेखना, समाधिमरण, मृत्यु का जीवन की देहली पर उपस्थित हो जाने पर ही सामान्य संथारा पण्डितमरण और सकाममरण आदि निष्काम मृत्युवरण के ही पर्यायवाची ग्रहण किया जा सकता है। सामान्य संथारा तीन प्रकार का होता हैनाम है। आचार्य समन्तभद्र संलेखना की परिभाषा करते हुए लिखते (अ) भक्तप्रत्याख्यान-आहार आदि का त्याग करना।। हैं कि आपत्तियों, अकालों, अतिवृद्धावस्था एवं असाध्य रोगों में शरीर (ब) इङ्गितमरण-एक निश्चित भू-भाग पर हलन-चलन आदि त्याग करने को संलेखना कहते है, अर्थात् जिन स्थितियों में मृत्यु शारीरिक क्रियाएँ करते हुए आहार आदि का त्याग कर देना। अनिवार्य सी हो गई हो उन परिस्थितियों में मृत्यु के भय से निर्भय (स) पादोपगमन-आहार आदि के त्याग के साथ-साथ शारीरिक होकर देहासक्ति का विसर्जन कर मृत्यु का स्वागत करना ही संलेखना क्रियाओं का निरोध करते हुए मृत्यु-पर्यन्त निश्चल रूप से लकड़ी के व्रत है। तख्ने के समान स्थिर पड़े रहना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10