Book Title: Samadhimaran Author(s): Rajjan Kumar Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi View full book textPage 9
________________ नष्ट करके अपयशयुक्त जीवन से मरण प्रत्येक दृष्टि से श्रेष्ठ माना जाता है। वस्तुत: समाधिमरण की अवधारणा भी इसी नियम से परिचालित होती है। जीवन और मृत्यु दो विपरीत अवसर है। दोनों ही अनिवार्य और अन्योन्याश्रित हैं। दोनों का अपना दर्शन है एवं महत्त्व है । चिन्तकों ने दोनों को कला कहा हैजीवनकला और मृत्युकला । अब यहाँ प्रश्न उठता है दोनों में कौन श्रेष्ठ है। यह बड़ा ही दुष्कर प्रश्न है और प्रति उत्तर अत्यन्त कठिन । अगर हम जीवन को श्रेष्ठ कहते हैं तो मृत्यु को क्या कहें और अगर मृत्यु को श्रेष्ठ कहते हैं तो जीवन के प्रति न्याय नहीं कर पाते । इस समस्या का समाधान जैन चिन्तकों ने इस प्रकार किया है— जीवन अध्ययन काल है जबकि मृत्यु परीक्षा की घड़ी। बिना अध्ययन परीक्षा में सफल नहीं हुआ जा सकता और बिना परीक्षा दिए अध्ययन की परख नहीं हो सकती । अत: दोनों का समान महत्त्व है फिर भी परीक्षाकाल को अपेक्षाकृत अधिक श्रेष्ठ माना जा सकता है क्योंकि इस समय थोड़ी सी चूक पूरे अध्ययन काल के परिश्रम को व्यर्थ कर सकती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिए कि यही एक मात्र सत्य है । ऐसा इसलिए कहा गया है कि मृत्यू ही वह अवसर है जहाँ प्राणी अपने भावी जन्म का चुनाव करता है । मृत्यु के क्षण जीव के मन में जिस प्रकार की भावना होती है उसी के अनुरूप उसे जन्म प्राप्त होता है। समाधिमरण के अनुक्रम में व्यक्ति प्राय: भावशून्य रहता है। अत: वह नवीन जन्म प्राप्त नहीं करता अर्थात् उसे मुक्ति मिल जाती है । मुक्ति ही प्रत्येक प्राणी का चरम लक्ष्य माना गया है। यही कारण है कि जैन चिन्तक समाधिमरण को आत्महत्या नहीं वरन् आत्मरक्षा कहते हैं । मानव शरीर मात्र हाड़-मांस का पुंज नहीं है, वरन् दर्शन-ज्ञान-चारित्र का संग्राहक भी है। जीव के विविध पर्याय माने गये हैं, मानव पर्याय उनमें से एक है । इसे सभी पर्यायों में श्रेष्ठ और दर्लभ कहा गया है। जीव इसी मानव पर्याय में अपना चरम लक्ष्य मोक्ष अथवा मुक्ति को प्राप्त कर सकता है । मोक्ष वह प्राप्तव्य है जो बार-बार मृत्यु के कारण होनेवाले संताप से जीव को सर्वदा के लिए मुक्त कर देता है। अत: मनुष्य योनि में जन्म लेने पर जीव को इस सुअवसर का लाभ लेना चाहिए । मुत्यु कब, किस रूप में और किस क्षण सामने आ जाए निश्चित नहीं है। अस्तु इस मानव पर्याय को सफल बनाने के लिए वे सारी कृत्य करने चाहिए जो मोक्ष प्राप्ति में सहायक हों । तप, धर्म का अभ्यास एवं आगमानुसार समाधिमरण करने से रत्नत्रय की प्राप्ति संभव है। समाधिमरण स्वैच्छिक देहत्याग का वह प्रारूप है जो धर्मसम्मत होने के साथसाथ नैतिक रूप से भी ग्राह्य है इसे सामाजिक दृष्टि से भी मान्य किया गया है। प्राचीन काल से लेकर आज तक जैन परम्परा में इसे आदरपूर्ण स्थान प्राप्त है । इसके साक्षी जैन साहित्य एवं पुरातात्त्विक अभिलेख हैं जिनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है। पूर्व की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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