Book Title: Samadhimaran
Author(s): Rajjan Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 7
________________ आत्मस्वरूप के दिग्दर्शन में देहादिक अंगों का सक्रिय योगदान रहता है। यही कारण है कि विद्वानों ने शारीरिक स्वास्थ्य एवं देहरक्षण को भी महत्त्व प्रदान किया है। . योगादि साधनाभ्यास के द्वारा जहाँ एक तरफ देह रक्षा की जाती है वहीं दूसरी तरफ आत्म साक्षात्कार भी किया जा सकता है। जैन परम्परा में यह विचार प्रस्तुत किया गया है कि मनुष्य को यथाशक्ति देहरक्षा करनी चाहिए, परन्तु कदाचित् किसी कारण से दैहिक साधनों पर उपसर्ग आ जाए, उत्साह क्षीण होने लगे, जीवन भारस्वरूप लगने लगे, नित्य क्रियाओं के सम्पादन में व्यवधान आने लगे, किसी भी कार्य को सम्पन्न करने के लिए किसी अन्य के सहायता की अपेक्षा होने लगे तब इन विषम परिस्थितियों में मनुष्य को समाधिमरण अंगीकार करना चाहिए। 'समाधिमरण' सामान्य बोलचाल की भाषा में समाधिपूर्वक मरण करने का नाम है। यह समाधिमरण का एक अर्थ अवश्य हो सकता है, परन्तु जैन मत में यह समाधिमरण का अर्थ नहीं है। यह उसका पारिभाषिक शब्द है जिसे सामान्य अर्थ का वाचक नहीं माना गया है। समाधिमरण में देहत्याग अवश्य किया जाता है, लेकिन नितांत विलक्षण ढंग से । इस अवस्था में साधक दृढ़तापूर्वक शरीर के संरक्षण का भाव छोड़ देता है । आहारादि का त्याग कर निर्विकल्प भाव से एकान्त, पवित्र, शान्त स्थान में आत्मचिन्तन करते हुए आनेवाली मृत्यु की प्रतीक्षा की जाती है। प्रतीक्षा के इस अनक्रम में किसी प्रकार की शीघ्रता अथवा विलम्ब की चाह नहीं रहती है, रहती है तो बस एक मात्र भावना आनेवाली मृत्यु के स्वागत की । यही समाधिमरण है जिसे जैनों ने कई नाम दिये हैं - सल्लेखना, संथारा, समाधिमरण, पंडितमरण, ज्ञानीमरण, सकामरण, उद्युक्तमरण, संन्यासमरण, अंतक्रिया, मृत्युमहोत्सव आदि । समाधिमरण स्वैच्छिक देहत्याग का शान्त, सौम्य, धर्म-सम्मत उपक्रम है। यह बलपूर्वक नहीं वरन् प्रीतिपूर्वक जीवन की अन्तिम बेला में स्वीकार करनेवाला कर्म है। यह सर्वदुःख विनाशक एवं मोक्षप्रदायक है। इसे व्रतराज भी कहा जाता है । क्योंकि व्रत की भाँति इसे श्रद्वा एवं विश्वास के साथ स्वीकार किया जाता है । यह स्वप्रेरणा के द्वारा ग्रहण किया जाता है, जिसका प्रमुख उद्देश्य होता है - धर्म और संयम की रक्षा । वस्तुतः इन भावनाओं से युक्त कर्म कभी भी किसी प्रकार के बाह्य दबाव में आकर स्वीकार नहीं किया जाता, बल्कि स्वतः ही अन्तस की प्रेरणा पाकर प्रारम्भ हो जाता है। जैन ग्रन्थों में यह स्पष्ट लिखा है कि समाधिमरण बलात नहीं कराया जा सकता, प्रीति के रहने पर ही यह पूर्ण होता है। स्वप्रेरणा इस व्रत को प्रारम्भ करने की प्रथम अपेक्षा है जिसका मूल मंतव्य है राग-द्वेष के बन्धन को अल्प करना। राग-द्वेष ही सर्व दु:खों का जनक है । समाधिमरण में इसी मूल कारण को अल्प करने का प्रयास किया जाता है । मनुष्य अपने देह के प्रति सबसे अधिक ममत्व रखता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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