Book Title: Samadhimaran Author(s): Rajjan Kumar Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi View full book textPage 6
________________ पुरोवाक् जन्म लेनेवालों की मृत्यु अवश्यंभावी है । जन्म के साथ मृत्यु अनिवार्य रूप से सम्बद्ध है । जन्म अगर किसी जीवन का प्रारम्भ है तो मृत्यु उस जीवन का अवसान और यही सत्य है। मृत्यु के पाश से किसी भी प्राणी का बच पाना संभव नहीं है। इस सनातन सत्य को जानते हुए भी प्राणी अपनी मृत्यु को टालने का यथाशक्ति प्रयास करता है और दुःखी होता है। अपने इस प्रयत्न में कदाचित् जीवन के आनंद से भी वंचित रह जाता है। मनुष्य को इस त्रासदी की भयावहता से मुक्त रखने के लिए मर्मज्ञ विद्वानों ने अनेक बार इस बात का उद्घोष किया है- 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः' अर्थात् जन्म लेनेवालों की मृत्यु सुनिश्चित है । मृत्यु जन्मधारी के लिए शाश्वत सत्य है। इस प्रकार यह स्वीकार करने में कदाचित् संकोच नहीं होना चाहिए कि जन्म की भाँति मरण भी जीवन का अभिन्न पक्ष है। अगर जन्म है तो मृत्यु भी है। जीवन जीना एक कला है तो मृत्यु को अंगीकार करना इससे कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यही कारण है कि भारतीय चिन्तकों ने जीवन की भाँति मरण को भी अपने चिन्तन में पर्याप्त स्थान दिया है। जैन एवं जैनेतर विद्वानों का इस सम्बन्ध में मत है जीवन में जन्म सर्वोपरि है, परन्तु यही एक मात्र सत्य नहीं है । मृत्यु के बिना जीवन उस राजा की भाँति है जो कथाकार के समक्ष यह कहने को विवश हो जाता है - बस और नहीं ! अब अन्त करो! मरण का यह सन्दर्भ मात्र व्यवहारिक महत्त्व का ही चिन्तन नहीं है वरन् मानव जीवन में कुछ और पक्ष का भी विवेचन प्रस्तुत करता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि वर्तमान जीवन अथवा जन्म मात्र जीवन का निर्धारक है, जबकि मृत्यु कई जन्मों का निर्धारक बन जाता है। इस विश्वास के पीछे तर्क है, दर्शन है, अध्यात्म है और सबसे बड़ी बात यह है कि ग्रन्थों में इस हेतु साक्ष्य उपलब्ध हैं। जैन चिन्तक इस हेतु दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए इस बात पर बल देते हैं कि मृत्यु की बेला में साधक को अधिक सजग रहना चाहिए। उसे मृत्यु का शोक न करके समारोहपूवर्क उसका आनन्द मनाना चाहिए । जैन लोग मात्र इस प्रकार चिन्तन ही नहीं करते वरन् मृत्यु महोत्सव का आयोजन व्यावहारिक रूप में भी करते हैं। यह जैन परम्परा का अपना वैशिष्ट्य है जो अन्यत्र दुर्लभ है। जैन चिन्तन में मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य-आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति है। इस हेतु साधना का आश्रय लेना पड़ता है। इसकी सहायता से आत्मस्वरूप का सच्चा दिग्दर्शन संभव है। इसी के द्वारा व्यक्ति/साधक आत्मामय और आत्मा के स्वरूप को आवेष्टित किये हुए है और इसका नाश मात्र साधना के द्वारा ही संभव है। तप आदि साधना विविध प्रकार की साधना है। अत: यह स्वीकार करने में किश्चित् विरोध नहीं है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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