Book Title: Saindhav Puralipime Dishabodh Author(s): Sneh Rani Jain Publisher: Int Digambar Jain Sanskrutik Parishad View full book textPage 8
________________ दो शब्द मानव सभ्यता की प्राचीनता के विषय में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं । लगभग प्रत्येक धर्म ने सृष्टि की रचना से मानव के अस्तित्व को जोड़ते हुए उसे किसी "सृष्टिकर्ता' की कृति माना है और वहीं से मानव के विकास और सभ्यता की उत्पत्ति को स्वीकारा है तो डारविन ने मानव का विकास बंदरों से संबंधित दर्शा दिया है । कल्पनाऐं अपनी-अपनी तरह से उठी हैं । किसी ने उसे "भगवान्" नामक अज्ञात शक्ति की "विनोद रचना" माना है तो किसी ने "ब्रह्मा" नामक भगवान स्वरूपी दैवीशक्ति की कृति माना । किसी ने उसे "अल्लाह की देन" और किसी ने "गॉड" की रचना माना । बात प्रत्येक बार ऐसे ही बिंदु पर आकर ठहर गई कि मनुष्य उस रचना का एक "खिलौना' मात्र बना रहा किन्तु उस खिलौने ने अपने अस्तित्त्व को उस "शक्ति' की "कृपा" मानते हुए सब कुछ उसी विधाता पर छोड़ते हुए स्वयं को स्वच्छंद बना लिया । उसके दो चेहरे बन गए। एक वह जो उस "सृष्टिकर्ता" विधाता से भयभीत रहते हुए उसे पूजता रहा किंतु दूसरा वह जो संपूर्ण चराचर पर हावी होता रहा क्योंकि उसने उस "सृष्टिकर्ता" को अपनी समझ में अपनी मनोवृत्ति के अनुकूल प्रसन्न कर रखा था । उसी रचेता की अन्य जीवन्त कृतियों पर वह घोर स्वार्थी बनकर अत्याचार करता रहा । यह पाश्विकता उसे खूख्वार माँसाहारी और दुराचार में प्रवीण बना गई । अपनी प्रवृत्तियों की पूर्ति के लिए उसने धर्म की आड़ में भी हिंसात्मक रवैया अपनाकर निरीह जीवों के हनन की सीमाएं लांघ दीं । वैसे ही उसे समर्थक भी मिल गए । किंतु उस बर्बरता को कोई "संस्कृति" और "सभ्यता" नहीं पुकार सका । श्री विन्टरनित्ज ने इस प्रकार की मान्यताओं पर खुलकर अपने आलोचनात्मक विचार दिए हैं । सिंधु घाटी सभ्यता के विषय में विद्वानों एवं पुरातत्त्वज्ञों की यही राय है कि सैंधव लोग अहिंसक थे, कृषि निर्भर, गौपालक थे तथा आत्मा और पुनर्जन्म में विश्वास रखने वाले स्वतंत्र एवं मौलिक चिंतक थे । उस काल में वेद संबंधित कोई भी प्रमाण न मिलने के कारण उसे "वेद पूर्व कालीन" कहा गया है । सिंधु घाटी पर कार्य करने वाले विशेषज्ञों ने अति उपयोगी जानकारी पाठकों के सामने उत्खननों से प्राप्त सामग्री संबंधी. केटालॉगों के रूप में रख छोड़ी है। वास्तव में वे सचित्र केटालॉग ही आज अध्ययन का विषय हैं। वेब साइटों से भी बहुत सामग्री मिली है। नवोदित कुछ मुझ जैसे पुरातत्त्वज्ञों का ध्यान अधिकतर ऐसे चट्टानी पर्वत खींचते है जहाँ मनुष्य का आवागमन कभी-कभी आने से ही होता हो । टीलों की खुदाई बहुत अधिक सावधानी तथा लागत के साथ-साथ समय और प्रशासनिक औपचारिकताएँ चाहती है जबकि चट्टानों पर अंकित रहस्य अनदेखे अज्ञात रह जाते हैं । ऊँचाई होने से सामान्य जनता की पहुंच से वे दूर होते हैं । इसीलिए बहुधा वे नष्ट होने से बच भी जाते हैं । तभी दूसरी ओर पर्यटकों की पहुँच वाले क्षेत्रों के पुरातत्त्व को अनवांछित गूदागादी से नष्ट होने का खतरा बहुत बढ़ जाता है । जे. एम. केनोअर नामक ईरानी पुरातत्त्वज्ञ ने जो वर्तमान में एक अमरीकी स्थित विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं. पाषाणों पर अंकित आकृतियों पर अध्ययन करके एक विशेष चिन्ह (चतुर्दिक त्रिआवत्ति) को सिंधु घाटी सभ्यता का लगभग 3500 वर्ष प्राचीन अंकन स्वीकारा है । वह अंकन पर्वतीय जैन क्षेत्रों पर भी दिखा है। अनेक प्राचीन “जिन” बिंबों पर उकरित प्रशस्तियाँ प्रतिदिन अभिषेक करने के बाद भी अबूझ बनी हुई हैं । वे सब उस आर्ष लिपि के अंश हैं जिन्हें “वेद पूर्व"के साथ-साथ हम इसी पुरालिपि' की धरोहर के रूप में भी पुकार सकते हैं । उसे संकेतार्थ उपयोग किया गया है जिसे हमने इस कृति में जैन परिप्रेक्ष्य में पढ़कर ही। "सैंधव पुरालिपि में दिशाबोध" लिखा है । इसे प्रथम बार हमने सामान्य "स्थिति के क्रमानुसार पढ़ा था किंतु दुबारा इसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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