Book Title: Saindhav Puralipime Dishabodh
Author(s): Sneh Rani Jain
Publisher: Int Digambar Jain Sanskrutik Parishad

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Page 15
________________ हैं उसी प्रकार तीन बिंदु रत्नत्रय और पाँच बिंदु पंच परमेष्ठी दर्शाते हैं । छह बिंदु अथवा छह लकीरें षद्रव्य और सात लकीरें सप्त तत्त्व को दर्शाते हैं । लेटा अर्द्ध चंद सिध्द शिला. उल्टा चंद्र छत्र और खड़ा चंद्र पुरुषार्थ दर्शाता है तथा त्रिशूल रत्नत्रय की अभिव्यक्ति देता है । ये प्रत्येक विषय स्वयं अपने आप में अपनी विस्तृत भूमिका और विशाल विषय रखते हैं । इस संदर्भ में श्री इरावथम महादेवन के विचारों की साम्यता जैन आधार पर खरी उतरती है। पुराविदों ने पुरालिपि को पढ़ते समय यह तो ध्यान रखा कि भारतीय पृष्ठ भूमिका में भारतीय अध्यात्म को ही प्रस्तुत किया जाए और इसी हेतु वैदिक आधार पर पुरालिपि को पढ़ने का प्रयास भी किया किंतु उसे सीमित आधार पर ही वैदिक, माहेश्वर सूत्र और अनुष्टुभ छंद की सहायता से पढ़ा और पढ़ते समय भी जैनधर्म की प्राचीनता को पूर्णरूपेण भुला दिया । बस इसीलिए भटक गए । परम्परागत आधारों पर पलती बढ़ती दीर्घ भूतकाल से अनुभावित और ज्ञान सिंचित अपनी अमूल्य उस "मूल संस्कृति" को सही-सही न पहचान कर आने वाली पीढ़ियों को उनकी धरोहर से परिचित नहीं करा सके। वह परम्परा मानव की कुंठित जाति धर्म भावना तथा साम्प्रदायिकता के घेरों से परे है, क्योंकि वह मात्र अनुभवों पर आधारित है । वह ऐसी परम्परा है जिससे प्रत्येक सांसारिक प्राणी का जीवन जुड़ा हुआ है । उसे हम जो भी नाम देवें, अर्थ में हम उसी एक आत्मा में, ब्रह्म/रूह/सोल को ही महत्ता देते हैं । भारतीय अध्यात्म का रहस्य उसी आत्मा की शाश्वतता, पुर्नजन्म और उसकी शुद्धात्म स्थिति को प्राप्त करना अर्थात् (मोक्ष प्राप्ति) पर आधारित रहा है । आधुनिक विज्ञान भी इसे नकार नहीं सकता । इसी हेतु भारत की भव्यात्माओं ने अनादि काल से आत्मोन्नति की राह, तप के पथ पर चलना स्वयं प्रेरित होकर स्वीकारी । इसके लिए किसी बाहरी दबाब की आवश्यकता नहीं पड़ी न ही समझी गई । उस रहस्य को भुलाकर हम भारत की मूल लिपि को नहीं समझ सकते हैं। डारविन ने भले ही अनुमान से मानव का उद्भव बंदर से मान लिया किंतु जिन शासन विश्व की शाश्वतता में विश्वास करता है । जिन दर्शन में अब भी बंदर की संतति बंदर और मानव की संतति मानव है । इन पर्यायों में "योनि स्थान" की अपनी महत्ता है । चौरासी लाख योनियों के जन्मस्थानों की 9 प्रकार की स्थितियों में रहकर इस शाश्वत आत्मा ने अनादि काल से पर्यायें बदली हैं । वे सब कर्माधीन थीं और रहेगी । जब तक कर्मों से मुक्ति नहीं है तब तक आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को नहीं पा सकेगी । नीम बोकर भला आम कभी मिला है ! जीन सिध्दांत भी इसे नहीं नकारता। "निगोद से लेकर सर्व विकसित मनुष्य पर्याय तक इस आत्मा ने अब तक न जाने अनगिनत बार ही भव चक में गोते खाए हैं" । इस स्थिति को सिंधु घाटी सभ्यता द्वारा एक सील में "स्वस्तिक से अंतहीन गठान की स्थिति परिवर्तन" को दर्शाया गया है । उस सभ्यता में "आत्मा' की अदम्य शक्ति को पहचाना गया है और पुरुषार्थ का मार्ग भी बतलाया गया है । आत्मा की उसी शक्ति की एक अन्य अभिव्यक्ति है "ॐ"। उसने उस "ऊँ" को स्वर में भी पहचाना है और लिपि में भी । “व्यवहार" में वह अंतर्यात्रा है और "निश्चय' में आत्मस्थता । स्वर और भाषा तो सदैव रहे, लिपि में वह बिंदु से लकीर में बदली और लकीर वक्रता में । तब शून्य ने जन्म लिया । शून्य, वक्र, लकीर और बिंदुओं ने मूल लिपि को जन्म दिया और प्रथम तो नैसर्गिक वस्तुओं के आकार बने पश्चात् उच्चारण और प्रभाव के आधार पर संकेत अक्षर बने । ऐसे ही एक-एक अक्षर ने रूप पाया है । सैंधव लिपि में खड़ी, आड़ी, छोटी, बड़ी लकीरें प्रभावशील अक्षर हैं । ये बहुधा संयुक्ताक्षर बनाती हैं । वक्र पुरुषार्थबोधक अक्षर है । यथा इसकी अलग-अलग एकल प्रस्तुति भी संभव है और अनुक्रम भी । ये जब अनुक्रम में उपस्थित होते हैं तब इनकी चरम स्थिति के द्वारा प्रारंभ का ज्ञान होता है कि इन्हें किस क्रम में पढ़ा जावे ठीक वैसे ही जैसे कि बालकपन से किसी के जीवन चक्र को दर्शाते हुए उसकी वृद्धावस्था को भी दर्शाया जा सकता है अथवा कभी चरम स्थिति को देखकर "भूत भविष्य" समझा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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