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प्रथम दशा में अवलोकन आगे बढ़ता ही है जबकि अन्य स्थितियों में वह आगे बढ़ने वाला तथा पीछे पलटकर देखने वाला भी बन सकता है । श्री महादेवन का लिपि पठन सूत्र ऐसी स्थिति में कभी-कभी अनदेखा होना संभव होता है । कभी-कभी अंत ही प्रमुख होता है और उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता ।
सिंधु घाटी अवशेषों में इसे फील्डपशु के द्वारा उसके सिर की ओर से पढ़ा जाता है यथा सीलों में बहुधा फील्ड चित्र/पशु पूर्वमुखी हैं । ऐसी स्थिति में लिपि को पूर्व से पश्चिम/ R-L पढ़ा जाना उचित लगता है । जिन सीलों में वे पश्चिम से पूर्व खड़े हुए हैं तब उन्हें L-R पढ़ा जाना उचित होगा। अन्यथा भी आरंभ और अंत तो देखना ही होगा।
अवलोकित सिंधु घाटी लिपि की 20 से भी अधिक कुंजियों के आधार पर इतना तो निर्णय हो चुका है कि सिंधु घाटी का संबंध जैन अध्यात्म से बहुत निकट का और गहरा रहा है । प्राप्त खंडित धड़ों का कायोत्सर्गी साम्य भी इस तरह के निर्णय बनाने में सहयोगी हुआ है । दिशा सिद्ध होने के बाद संकेतों के अर्थ का ज्ञान भी अत्यंत आवश्यक है अन्यथा कभी गंभीर त्रुटि हो जाना संभव है। दिशा बोध के लिए संकेतों को कभी आड़े-तिरछे अथवा कोनों से भी पढ़ा जाना अथवा कभी ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर पढ़ना भी संभव है । ऐसी स्थिति में वे “अक्षर" अपने आप में संपूर्ण बने रहते हैं | जैन अध्यात्मिक सिद्धांतों का अल्प ज्ञान भी इस लिपि पाठन में बहुत उपयोगी सिध्द हुआ है । लिपि में अंकित प्रत्येक बिंदु और लकीर को ध्यान देना आवश्यक हो जाता है । जहाँ कहीं अंकन घने अथवा खंडित और अधूरे हैं वहाँ भी उनका क्रम सहज ही पहचाना जा सकता है । विशेषज्ञों की साइन लिस्टों में इसका ध्यान न रखा जाने के कारण अनेक त्रुटियाँ हमारे अवलोकन में आई हैं यथा अंकित || छह लकीरों को एक अक्षर मान लिया गया जबकि मेरे पाठन में वह 3 अक्षर हैं |... ||| तथा इन्हें पहचानने में छोटी सी भूल भी 'अर्थ' को बहुत भटका देती है । इसलिए सर्वप्रथम सिंधुघाटी की वर्णमाला बनाया जाना अति आवश्यक था । पश्चात् उन वर्णो का अर्थ समझा जाना । इस लिपि को मौन भी पढ़ा जा सकता है और उच्चारण की विशेष आवश्यकता नही है क्योकि श्रमण अधिकांशतः मौन ही रहते हैं/थे इसीलिए मुनि कहलाए। महावीर स्वयं केवलज्ञान प्राप्ति के 66 दिन बाद तक मौन रहे । पश्चात् उनकी दिव्य ध्वनि "ॐ" खिरी । किंतु संघों में संबोधन, उपदेश और प्रवचन का अत्यंत महत्त्व होने से स्वर की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है ।
लिपि विशेषज्ञों ने सिंधु घाटी के अक्षरों को ब्राह्मी तथा बाद की भाषाओं के स्वर देने का प्रयत्न किया है किंतु ब्राह्मी ने मात्र 27 संकेताक्षर ही सिंधु घाटी लिपि से लिए हैं, जबकि ब्राह्मी और सिंधु घाटी के काल के बीच लंबा अंतराल होने से अक्षरों को ब्राह्मी के स्वरों का आधार दे पाना अत्यंत भ्रामक हो जाता है। हमने इन मूल अक्षरों को संकेतों से ही पहचाना है।
एक बालक जिस प्रकार अपनी अभिव्यक्ति को रूप देने का प्रयास करता है ठीक उसी प्रकार सिंधु घाटी लिपिकारों ने मिट्टी, धातु और अस्थि पर अपने उद्देश्यों को अति सफलता से अभिव्यक्त किया है । अर्थात् घर/संघ. नदी, छत्र, पर्वत, साँपसीढ़ी खेल आदि का दिखलाया जाना । इतना अवश्य है कि वह लिपिकार चित्राक्षर, संकेताक्षर और संयुक्ताक्षर बनाते समय अपने उद्देश्य के प्रति अत्यंत सावधान रहे हैं इसीलिए वह सफल भी हुए हैं । चित्रों के अंकन में उन्होंने रेखांकन के साथ-साथ शेडिंग की अति सुंदर झलक दी है जो बेजोड़ है । प्रत्येक पशु के अंकन में उनने अपनी यह दक्षता दर्शाई है । यह उस काल के कलाकारों की कला की ऊँचाई दर्शाता है । जितना उत्कृष्ट योगदान उस अंकन में सैंधव कलाकार का रहा है उतना ही सावधान और सफल योगदान हमारे उन पुरातत्त्ववेत्ताओं का है जिन्होंने सम्पूर्ण भूगर्भित सामग्री को सुरक्षा से बाहर निकलवा कर कण कण भूमि को छनवाकर सूक्ष्मतम प्रतीकों को साफ सुथरा करवाकर उनको अत्यंत सुंदर फोटोग्राफी द्वारा
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