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622- तीन धर्मध्यानी (श्रावक) चार अनुयोगी, चतुर्विध संघाचार्य की शरण में जाते हैं। 623- संघाचार्य की सुरक्षा में प्राप्त वैराग्यमय वातावरण वैयाव्रत्य द्वारा साधक को सल्लेखना और मोक्ष में सहायक होता है। 624- अर्धचक्री भी रत्नत्रय की साधना करके आत्मस्थता से वीतरागी तप करता है । 625- संघाचार्य की शरण में रत्नत्रय की साधना वैराग्यमय वीतराग तप कराती है । 626- अस्पष्ट। 627- स्वसंयमी. इच्छा निरोधी. आरंभी गृहस्थ भी भेद विज्ञानी. निश्चय व्यवहारी है । 628- एकभवी पंचम गति का साधक रत्नत्रयी जंबूद्वीप में चार अनुयोगी, वैराग्यमय निश्चय-व्यवहार धर्म पालता है । 629- सप्त तत्व चिंतन ढाई द्वीप में वैराग्य उपजाते हैं । 630- (परमेष्ठी) जाप को स्मरण करने वाला भवघट से तिरने के लिए पुरुषार्थमय सल्लेखना लेकर तीर्थकर की आराधना
करते हुए वैराग्य पालता है । 631- उपशमी ने गृह से ही गुणस्थानोन्नति करते हुए सल्लेखना विचार तीन दो ध्यानों सहित चार शुक्लध्यानों का ध्यान
करके वैराग्य साधना की । 632
आर्यिका ने वैराग्य साधना की । 633- निकट भव्यत्व (छठे भव में मोक्ष जाने वाला) है। 634- एकदेश स्वसंयमी ने तीन धर्मध्यानी भूमिका से पुरुषार्थ बढ़ा भवघट तिरने निश्चय-व्यवहार धर्म पालकर साधना की। 635-638-अस्पष्ट। 639- (अ) वैयावृत्य का झूला ।
(ब) वातावरण । 640- (अ) तीर्थकरत्व हेतु वैराग्य ।
(ब) दो शुक्लध्यान वाला वातावरण। 641-642-अस्पष्ट। 643- (अ) चतुराधन और पंच परमेष्ठी आराधन पंचमगति तक पहुंचाते हैं ।
(ब) अस्पष्ट । 644- अधूरा एवं अस्पष्ट। 645- (अ) वृक्षों के वन में वीतरागत्व पलता और पंच परमेष्ठी आराधन होता है।
(ब) मछली (अरहनाथ)
(स) वातावरण तीन धर्मध्यानों वाला सामान्य (इस काल में उपकारी होता है) 646- तपस्वी संघाचार्य की शरण में रत्नत्रय से (दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिए) वैराग्य धारण करते हैं । 647- अस्पष्ट | 648- (अ) चर्तुगति भ्रमण |
(ब) अष्ट गुण वैभव और तीर्थकरत्व।
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