Book Title: Sahitya purush Acharyaratna Deshbhushanji
Author(s): Rameshchandra Gupta, Sumatprasad Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 9
________________ धर्मामृत आचार्य नयसेन कृत धर्मामृत कन्नड़ भाषा का क्लिष्ट ग्रंथ है । प्रस्तुत ग्रंथ में गद्य एवं पद्य के माध्यम से आचार्य नयसेन ने समयग्दर्शन के स्वरूप, उसके आठ अंग एवं पांच व्रतों पर कथाएं प्रस्तुत करके भटकती हुई मानव जाति को धर्मामृत प्रदान किया है। आचार्य श्री देशभूषण जी की मान्यता है कि कथा साहित्य द्वारा मानव-मन को शीघ्र ही धर्म के पथ पर लगाया जा सकता है। उनके अनुसार जो काव्य या कथा जड़मति के हृदय में प्रवेश कर उसकी रुचि को जागृत कर सके ऐसा सुगम सर्वगम्य काव्य ही काव्य पद का अधिकारी है। धर्मामृत के माध्यम से आचार्य श्री ने अनेक पौराणिक पात्रों का सुधी पाठकों से परिचय कराया है। आचार्य श्री की कथा शैली सहज एवं रोचक है। सभी आयु वर्ग के श्रावक-श्राविका इस कथासागर का समान रूप से आनन्द ले सकते हैं। कथाओं की रोचकता तारतम्यता के कारण पाठक ग्रन्थ को बीच में नहीं छोड़ पाता। इन कथाओं के माध्यम से श्रावक समदाय को धार्मिक मल्यों के प्रति अडिग आस्था रखने का सन्देश दिया गया है। मेरुमन्दर पुराण श्री वामनाचार्य कृत तमिल ग्रन्थ 'मेरुमन्दर पुराण' में १३ वें तीर्थकर भगवान् श्री विमलनाथ जी के गणधर मेरु और मन्दर के मोक्ष जाने की कथा है । राजकुमार वैजयन्त अपने पिता मुनि श्री सजयंत पर हुए उपसर्ग के समाचार से क्षुब्ध हो गया था। उसने उपसर्गकर्जा विद्यदृष्ट को नागपाश में बांधकर मारने का निश्चय कर लिया था। दैवयोग से उसी समय लांतवकल्प से परिनिर्वाण पूजा के निमित्त आए हए आदित्यभाव देव से उसकी भेंट हो गई। आदित्यभाव देव ने मेरुमन्दर पुराण के कथापात्रों के पूर्वभव वर्णन के ब्याज से कथाओं का जो वृहद निरूपण किया है उससे पाठकों को यह प्रतीत होने लगता है कि संसार के प्राणियों का सम्बन्ध भाव अस्थायी है। यदि प्राणी को अपना कल्याण करना है तो उसे राग-द्वेष को बढ़ाने वाले प्रसंगों से बचकर आत्मकल्याण के लिए प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार आचार्य श्री ने 'मरुमन्दर पुराण' की रोचक एवं प्रेरक कथाओं के माध्यम से पाठकों को सांसारिकता से विरक्त होकर आत्मचिन्तन की प्रेरणा दी है। आचार्य श्री द्वारा प्रणीत अन्य रचनाओं में भी प्रथमानुयोग के स्वर मुखरित होते हैं । ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि आचार्य श्री को धर्म की मर्यादाओं में प्रतिदिन षड्आवश्यक धर्म का पालन करना होता है । अतः तीर्थकर भगवान् की स्तुति उनके दैनिक जीवन का अंगहै। आचार्य श्री पौराणिक साहित्य के अध्ययन-मनन से अपने जीवन को गति एवं दिशा देते हैं। एक धर्मसन्त के रूप में राष्ट्र के कल्याण की भावना से उन्होंने पौराणिक साहित्य को सहज, सरल एवं रोचक रूप में प्रस्तुत करके मानव जाति का महान् उपकार किया है। (२) दार्शनिक साहित्य आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी की दृष्टि में धर्म की गतिशीलता उसके दर्शन शास्त्र में निहित होती है । आचार्य श्री ने श्री गौतम गणधर एवं राजा श्रेणिक के प्रश्नोत्तर के माध्यम से 'धर्मामृत' में अपनी भावनाओं को इस प्रकार व्यक्त किया है-"हे राजन् ! कान लगाकर सनो ! बिना राजा के पृथ्वी, बिना भोजन के वृत्ति, बहुमूल्य वस्त्रों के बिना आभूषण, अलंकार के बिना वेश्या, विशेष लाभ के बिना तोडा हआ कमल पुष्प, कमल के बिना तालाब, फसल बिना देश, रक्षा बिना राजा का राजपद जिस प्रकार व्यर्थ है उसी प्रकार दर्शन रहित जो धर्म है, इस जगत् में वह कभी भी शोभा नहीं पाता।" आचार्य श्री की दर्शनशास्त्र के प्रति सहज रुचि है। 'भावनासार' में आचार्य श्री ने दर्शन सम्बन्धी सूत्रों को समझाने के लिए लौकिक उपमानों एवं प्रचलित कथाओं का आश्रय लिया है। 'वर्धमान पुराण' का सम्पादन करते समय उन्होंने ग्रंथ को उपयोगी बनाने के लिए तत्त्व दर्शन पर विशेष सामग्री प्रस्तुत की है। इसी कारण ग्रंथ का नाम भी 'भगवान् महावीर और उनका तत्त्व दर्शन' रखा गया है । इस बृहदकाय धर्मग्रन्थ में भी उन्होंने जैन दर्शन के सार को प्रस्तुत किया है । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि आचार्य श्री अपनी कृतियों के माध्यम से जैन दर्शन के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार करने में निरन्तर सलंग्न रहते हैं। उन्होंने प्रायः सभी रचनाओं में दर्शन सम्बन्धी समस्याओं का समाधान किया है। अपनी रोचक एवं उपदेशमयी शैली से दर्शन शास्त्र के गम्भीर विषयों को उन्होंने सरल एवं बुद्धिगम्य बना दिया है। आचार्य श्री की यह मान्यता रही है कि यदि हमें अपने धर्म के शाश्वत मूल्यों की ओर देश-विदेश के बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित करना है तो जैन समाज को दर्शन विषयक ग्रन्थों का विशेष रूप से प्रचार-प्रसार करवाना चाहिए। इसी भावना से उन्होंने श्री पुट्टय्या स्वामी द्वारा कन्नड़ भाषा में लिखी गई 'द्रव्यसंग्रह की ताड़पत्रीय प्रति की व्याख्या एवं सम्पादन का महान् कार्य किया है। प्रस्तुत ग्रंथ के सारतत्त्व को सृजन-संकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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