Book Title: Sahitya purush Acharyaratna Deshbhushanji
Author(s): Rameshchandra Gupta, Sumatprasad Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 15
________________ "अ"रिहंत कुरुक्षेत्र अरहंत निर्वाण, परियिदनाविय "ओ" दु। सिरिय निताजिसि अर्जुनमुंदन, गुरुवागलेलंक सिद्ध "अ"॥ पार्थ को समझाते हुए श्री कृष्ण आगे कहते हैं कि हे अर्जुन ! अरिहंत नामक कुरुक्षेत्र है और अरहंत नामक निर्माण क्षेत्र है। इन दोनों क्षेत्रों में से सबसे पहले तू कुरुक्षेत्र में जाकर बाह्य शत्रुओं के साथ लड़कर जिस तरह किसान शालि के भुस (तुष) को उड़ाकर तन्दुल की रक्षा करता है, उसी तरह हे पार्थ ! तू कुरुक्षेत्र में जाकर कर्मशत्रुओं को पराजित करके इष्ट अर्थात् धर्मात्माओं की रक्षा कर । तत्पश्चात् अरहंत नामक निर्वाण क्षेत्र में जाकर भीतरी अन्तरंग कामक्रोधादिक चारों कषायों तथा पांचों इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जीतकर परम स्थान अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त कर। आचार्य श्री की मान्यता है कि यदि भूवलय का गणितशास्त्र संसार में प्रचलित हो जाए और समांक का विषमांक से विभाग हो जाए तो सब प्रश्न हल हो जायेंगे। अंकों की महिमा बतलाते हुए उन्होंने कहा है कि भगवान् ऋषभदेव ने एक बिन्दी को काटकर ६ अंक बनाने की विधि बताकर कहा कि सुन्दरी देवी ! तुम अपनी बड़ी बहिन ब्राह्मी के हाथ में ६४ वर्णमाला को देखकर चिन्ता मत करो कि इनके हाथ में अधिक और हमारे हाथ में अल्प हैं। क्योंकि ये ६४ वर्ण के अन्तर्गत ही हैं । इस ६ के अन्तर्गत ही समस्त द्वादशांग वाणी है। यह बात सुनते ही सुन्दरी तृप्त हो गई। आयुर्वेद जगत् में 'पुष्पायुर्वेद' का नाम श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है। पुष्पायुर्वेद मूल रूप में तो उपलब्ध नहीं है किन्तु प्राचीन धर्मग्रन्थों में उसके उद्धरण मिलते हैं। कहा जाता है कि भूवलय में पुष्पायुर्वेद निबद्ध है । स्वर्गीय पं० ऐलप्पा शास्त्री के निधन से 'भूवलय' का अनुवाद कार्य एवं प्रकाशन रुक गया है। यदि जैन समाज इस दिशा में कुछ रचनात्मक कार्य करे तो साहित्य की अनेक निधियों के प्रकाश में आने की सम्भावना है। (६) प्रेरित साहित्य आचार्य श्री का जीवन जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार में समर्पित है। वे जैन समाज से यह अपेक्षा करते हैं कि वह अपने धर्म की सांस्कृतिक विरासत से विश्व को परिचित कराये। इसी भावना से वे स्वयं तो साहित्य-सृजन करते ही हैं, साधर्मी विद्वानों को भी साहित्य-लेखन के लिए प्रेरित करते रहते हैं। अहिंसा के अवतार भगवान बुद्ध की पच्चीस सौ वी जयन्ती के अवसर पर देश-विदेश के बौद्ध विद्वानों का ध्यान भगवान् महावीर स्वामी की वाणी की ओर आकर्षित करने के हेतु आपने अंग्रेजी व्याख्या सहित पूर्वप्रकाशित ग्रन्थों तत्वार्थ सूत्र, द्रव्य संग्रह, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, आत्मानुशासन का पुनः प्रकाशन कराया। आचार्य श्री के इस प्रयास से धर्म-प्रभावना को विशेष बल मिला। भगवान महावीर स्वामी के पच्चीस सौवे निर्वाण महोत्सव के अवसर पर आस्था का दीप प्रज्जवलित करने के लिए आचार्य श्री ने भगवान् महावीर और उनका तत्त्व दर्शन, णमोकार ग्रन्थ आदि पुस्तकों का प्रणयन किया और अपने विश्वासपात्र विद्वान् पं० बलभद्र जैन एवं इहितास-मनीषी स्वर्गीय पं० परमानन्द को प्रेरणा देकर जैन धर्म का प्राचीन इतिहास' प्रथमखण्ड एवं द्वितीय खण्ड का लेखन एवं प्रकाशन कराया। इसी प्रकार समय-समय पर उन्होंने श्रावकों की राशि को धर्म-कार्यों में नियोजित कराने की भावना से अनेकानेक अप्रकाशित एवं अनुपलब्ध ग्रन्थों का प्रकाशन कराया। आचार्य श्री द्वारा प्रेरित साहित्य संख्या की दृष्टि से विशाल होने के कारण उसकी सूची तैयार करना एक कठिन कार्य है। वैसे भी, आचार्य श्री एक अपरिग्रही एवं संचरणशील साधु हैं। कार्य निष्पादित होने के उपरान्त उनकी उसमें रुचि नहीं रहती। जैन शास्त्र भण्डारों में उनके द्वारा प्रेरित साहित्य के रूप में प्रेसठ शलाका पुरुष, त्रिकालवर्ती महापुरुष, तत्त्व भावना, तत्त्व दर्शन, रयण सार, नियमसार, यशोधर चरित्र, भक्ति कुसुम संचय, अध्यात्मवाद की मर्यादा, विद्यानुवाद, मन्त्र-सामान्य-साधन-विधान, जीवाजीव विचार, सद्गुरुवाणी इत्यादि कृतियां उपलब्ध हैं। आचार्य श्री ने इन उपयोगी कृतियों के सम्पादन एवं टीका के लिए विद्वानों को आकर्षित किया और श्रेष्ठिवर्ग को इनके प्रकाशन का व्यय-भार वहन करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार ये अनुपलब्ध कृतियाँ प्रकाश में आई। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी की रचना-मिता और सृजन-संकल्प के सन्दर्भ में कुछ विशेषताएँ सहज ही परिलक्षित होती हैं। समाहार रूप में उनका उल्लेख भी आवश्यक है। इयत्ता और ईदृक्ता दोनों ही रूपों में उन्होंने जो सृजन किया है उसमें सागर की अपार जलराशि के समान केवल विस्तार ही नहीं वरन् अतल गहराई की भांति चिन्तन की गम्भीरता भी है। उनके विचारों के अमृतकण सागर-तल की सीपी से निकले उज्ज्वल मौक्तिक हैं जिनमें कृत्रिम मोती की ऊपरी चमक और मुलम्मा नहीं वरन् जो अपने अन्तर्लावण्य से सहज भास्वर हैं। नैसर्गिक मोती की दीप्ति जैसे धारण करने वाले के शारीरिक लावण्य को अप्रतिम स्निग्धता से श्रीमंडित कर देती है उसी प्रकार इसमें किचित् सृजन-संकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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