Book Title: Sahitya purush Acharyaratna Deshbhushanji
Author(s): Rameshchandra Gupta, Sumatprasad Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 10
________________ विश्वव्यापी बनाने के लिए उन्होंने हिन्दी टीका के साथ अंग्रेजी अनुवाद भी दे दिया है । (३) भक्ति साहित्य आचार्य श्री द्वारा प्रणीत साहित्य का मुख्य प्राण भक्ति भावना है। संसार-चक्र में भटकती हुई आत्मा की मुक्ति के लिए आचार्य श्री स्वयं विदेहक्षेत्र स्थित तीर्थंकर अपराजितेश्वर की शरण में चले जाते हैं। महाकवि रत्नाकर वर्णी की भाव-यात्रा में सम्मिलित होकर वे १२७ पद्यों में प्रभु का स्तवन करते हुए संसार-सागर से पार करा देने की प्रार्थना करते हैं । १२८ वें पद्य में भगवान् का ग्रन्थकार की प्रार्थना पर अभय वचन है, जिसमें कहा गया है-"शंका मत करो, अच्छी तरह भाव लगाकर पूजा करो। यदि इस तरह मन लगाकर पूजा करोगे, स्तुति करोगे तो निश्चयपूर्वक अपराजितेश्वर अनन्तवीर्य स्वामी और श्री मन्दर स्वामी का साक्षात् दर्शन करोगे।" 'रत्नाकर शतक' में भी भक्ति की मन्दाकिनी प्रवाहित है। आचार्य श्री भगवान् को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, "हे रत्नाकराधीश्वर, आप करोड़ों सूर्य और चन्द्र के प्रकाश को धारण करने वाले हैं । आपने इस पृथ्वी के ऊपर पांच हजार धनुष के आकार में सोने और रत्नों के काश में निर्मित लक्ष्मी-मण्डप के मध्य भाग में स्वर्णमयी कमल की कणिका से चार अंगुल के उन्नत प्रदेश में, जय को प्राप्त किया था।" आचार्य श्री की उनसे एक ही भक्तिपूर्ण प्रार्थना है- "आत्म-स्वरूप के प्रति श्रद्धा, उत्कृष्ट ज्ञान और चारित्र इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं। यही रत्नत्रय आत्मा का अलंकार है। इसीलिए ये तीनों रत्न स्वीकार करने योग्य हैं, ऐसा आपने संसारी जीवों को समझाया है। हे भगवन् ! उस रत्नत्रय को प्राप्त करने की भावना मेरे हृदय में जागृत करें।" आचार्य श्री ने णमोकार ग्रन्थ में पंच-परमेष्ठी के स्वरूप का वर्णन करते हुए स्थान-स्थान पर भक्ति से अभिभूत होकर स्तुतिपरक साहित्य प्रस्तुत किया है । उनके मानस में २४ तीर्थंकर सदैव विराजमान रहते हैं। इसीलिए आपके साहित्य में तीर्थंकर भक्ति एवं तीर्थ क्षेत्र वन्दना विशेष रूप से विद्यमान रहती है। भगवान् ऋषभदेव के प्रति आपका अप्रतिम भक्ति भाव है। इसीलिए णमोकार ग्रन्थ में आपने उनके १००८ नाम व्याख्या सहित प्रस्तुत किए हैं । आपकी प्रगाढ़ भक्ति के कारण ही देश के विभिन्न भागों में नित्य नवीन दर्शनीय धर्मस्थलों का विकास हो रहा है। आचार्य श्री ने श्रावक समाज की सुविधा के लिए अनेक भक्तिपरक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। उनके सद्प्रयासों से जैन मन्दिरों के पूजन में व्यवहृत होने वाली विभिन्न पूजाओं, आरतियों और पाठ एवं प्रविधि के वृहद् संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। आचार्य श्री अपराजित मन्त्र णमोकार के महान् साधक हैं। धर्माराधन के लिए वे स्वयं इस मन्त्र का जाप करते हैं और इसकी अचिन्त्य शक्ति को जीवन की निधि मानते हैं। श्रावक समाज में भक्तिपूर्ण वातावरण बनाने के लिए उन्होंने राजधानी के मन्दिरों से दुर्लभ प्रतियां एकत्र करके णमोकार ग्रन्थ' एवं 'णमोमन्त्र कल्प' नामक महान् ग्रन्थों का सम्पादन किया है। आचार्य श्री ने प्राचीन साहित्य का आलोड़न करके अनेक भक्ति स्तोत्रों का संग्रह भी किया है । इस वार्धक्य में भी आप भक्तिपरक साहित्य के संग्रह एवं प्रकाशन में रुचि ले रहे हैं। सन् १९८१-८२ में जयपुर में हुए चातुर्मास के समय आचार्य श्री ने एक मन्दिर के शास्त्र भण्डार से सचित्र भक्तामर को खोज निकाला था। आचार्य श्री की प्रेरणा से यह ग्रन्थ भी शीघ्र ही प्रकाश में आने वाला है। आचार्य श्री की एक विशेषता यह है कि बालक-बालिकाओं अथवा अशिक्षित महिलाओं इत्यादि में भक्ति भाव जागृत करने के लिए वे अपने ग्रन्थों में भक्तिपरक अनेक चित्रों को सम्मिलित कर लेते हैं। भरतेश वैभव, भगवान् महावीर और उनका तत्त्व दर्शन, णमोकार-ग्रन्थ आदि के सहस्रों चित्र इस दृष्टि से अवलोकनीय हैं। (४) उपदेशात्मक-उदबोधक साहित्य श्रावक समाज को आचार्य श्री के मुखारविन्द से धर्म-श्रवण की विशेष अपेक्षा रहती है। धर्मगुरु के रूप में समाज का समीचीन मार्गदर्शन एवं धर्म के स्वरूप का परिज्ञान कराने के लिए उन्हें प्रायः नियमित रूप से उपदेश देना पड़ता है। जैनधर्म की शास्त्रीय मर्यादाओं का पालन करते हुए साधु एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए पदयात्रा करते हैं। अत: जैन साधुओं का सम्पर्क समाज के विभिन्न वर्गों से स्वयमेव हो जाता है। आचार्य श्री देशभूषण जी अपनी राष्ट्रव्यापी पदयात्राओं के लिए विशेष १० आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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