Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 5
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 27
________________ नहीं अपितु 'नियमसार' (१२०, १२१, १८३) आदि मेंभी "अप्पा" शब्द का प्रयोग है। श्रुत का शौरसेनी रूप “सुद" बनता है। शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर “सुदकेवली' शब्द के प्रयोग भी हुए हैं, जबकि 'समयसार' (वर्णी ग्रन्थमाला) गाथा ९ एवं १० में स्पष्ट रूप से "सुयकेवली", "सुयणाण" शब्दरूपों का भी प्रयोग मिलता है जबकि ये दोनों महाराष्ट्री शब्द-रूप हैं और परवर्ती भी हैं। अर्धमागधी में तो सदैव ‘सुत' शब्द का प्रयोग होता है। ३. शौरसेनी में मध्यवर्ती असंयुक्त "त्" का "द्" होता है साथ ही उसमें “लोप" की प्रवृत्ति अत्यल्प है, अत: उसके क्रिया रूप “हवदि, होदि, कुणदि, गिण्हदि कुण्वदि, परिणमदि, भण्णदि, पस्सदि आदि बनते हैं, इन क्रिया-रूपों का प्रयोग उन ग्रन्थों में हुआ भी है; किन्तु उन्हीं ग्रन्थों के क्रिया-रूपों पर महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक प्रभाव है, इसे निम्न उदाहरणों से जाना जा सकता है-- 'समयसार' वर्णी ग्रन्थमाला (वाराणसी) जाणइ (१०), हवई (११, ३१५, ३८४, ३८६), मुणइ (३२), वुच्चइ (४५), कुव्वइ (८१, २८६, ३१९, ३२१, ३२५, ३४०), परिणमइ (७६, ७९, ८०), (ज्ञातव्य है कि 'समयसार' के इसी संस्करण की गाथा क्रमांक ७७, ७८, ७९ में परिणमदि रूप भी मिलता है) इसी प्रकार के अन्य महाराष्ट्री प्राकृत के रूप जैसे वेयई (८४), कुणई (७१, ९६, २८९, २९३, ३२२, ३२६), होइ (९४, १९७, ३०६, ३४९, ३५८), करेई (९४, २३७, २३८,३२८, ३४८), हवई (१४१, ३२६, ३२९), जाणई (१८५, ३१६, ३१९, ३२०, ३६१), बहइ (१८९), सेवइ (१९७), मरइ (२५७, २९०), (जबकि गाथा २५८ में मरदि है), पावइ (२९१, २९२), घिप्पइ (२९६), उप्पज्जइ (३०८), विणस्सइ (३१२, ३४५), दीसइ (३२३) आदि भी मिलते हैं। ये तो कुछ ही उदाहरण हैं। ऐसे अनेको महाराष्ट्री प्राकृत के क्रिया-रूप समयसार में उपलब्ध हैं। न केवल 'समयसार' अपितु 'नियमसार', ‘पञ्चास्तिकायसार', 'प्रवचनसार' आदि की भी यही स्थिति है। बारहवीं शती में रचित वसुनन्दीकृत 'श्रावकाचार' (भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के इन ग्रन्थों से भी बदतर है, उसकी प्रारम्भ की सौ गाथाओं के ४० प्रतिशत क्रिया रूप महाराष्ट्री प्राकृत के हैं। इससे फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी आगमों के भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा भी न केवल वैविध्य है, अपितु उस पर महाराष्ट्री प्राकृत का भी व्यापक प्रभाव है, जिसे सुदीपजी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे हैं। यदि ये ग्रन्थ प्राचीन होते तो, इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव कहाँ से आता? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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