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क्या ब्राह्मी लिपि में 'न' और 'ण' के लिए
एक ही आकृति थी?
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शौरसेनी एवं किसी सीमा तक महाराष्ट्री प्राकृत की भी यह विशेषता है कि उसमें "नो णः सर्वत्र' अर्थात् सर्वत्र 'न' का 'ण' होता है (प्राकृतप्रकाश, २/४२)। जबकि अर्धमागधी में 'न' और 'ण' दोनों विकल्प से पाये जाते हैं। अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत से भिन्न शौरसेनी की दूसरी अपनी निजी विशेषता यह है कि उसमें मध्यवर्ती असंयुक्त 'त्' का सदैव 'द्' (तृतीय वर्ण) हो जाता है। किन्तु जब अभिलेखीय प्राकृत विशेष रूप से अशोक, खारवेल और मथुरा के जैन अभिलेखो में ये विशेषताएँ परिलक्षित नहीं हुई, तो शौरसेनी की अतिप्राचीनता का दावा खोखला सिद्ध होने लगा। अत: अपने बचाव में डॉ० सुदीप जैन ने आधारहीन एक शगुफा छोड़ा या आधारहीन तथ्य प्रस्तुत किया और वह भी भारतीयलिपिविद् और पुरातत्त्ववेत्ता पं० गौरीशंकरजी ओझा के नाम से, कि ब्राह्मी लिपि में 'न' और 'ण' वर्गों के लिए एक ही आकृति (लिपि-अक्षर) प्रयुक्त होती थी। किन्तु उन्होंने उनके इस कथन का कोई भी प्रमाण या सन्दर्भ प्रस्तुत नहीं किया। मुझे तो ऐसा लगता है कि सुदीपजी को जब कभी अपने समर्थन में अप्रामाणिक रूप से कुछ गोलमाल करना होता है, तो वे किसी बड़े व्यक्ति का नाम दे देते हैं, किन्तु यह उल्लेख नहीं करते कि उनका यह कथन अमुक पुस्तक के अमुक संस्करण में अमुक पृष्ठ पर है। वरिष्ठ विद्वानों के नाम से बिना प्रमाण के भ्रामक प्रचार करना उनकी विशेषता है। मैंने जब अपने लेखों 'न' और 'ण' में प्राचीन कौन?"
और “अशोक के अभिलेखों की भाषा" में यह सिद्ध कर दिया कि प्राकृत में 'न' का प्रयोग ही प्राचीन है और 'ण' का प्रयोग परवर्ती है तो उन्होंने पं० ओझा के नाम से अपने सम्पादकीय में बिना प्रामाणिक सन्दर्भ दिये यह लिखना प्रारम्भ कर दिया कि ईसा पूर्व के ब्राह्मी शिलालेखों में 'न' वर्ण और 'ण' वर्ण के लिए एक ही आकृति का प्रयोग होता था। डॉ० सुदीपजी इस सम्बन्ध में प्राकृतविद्या, अप्रैल-जून १९९७, पृ० ७ पर एवं जनवरी-मार्च १९९८, पृ० ७-८ पर क्रमश: लिखते हैं कि -
"इसी प्रकार प्राकृत के 'नो णः सर्वत्र' नियम का अपवाद इन शिलालेखों में प्रायशः 'न' पाठ की उपलब्धि बताया गया है। स्व० ओझाजी ने इसका समाधान देते हुए लिखा है कि प्राचीन भारतीय लिपियों, विशेषतः ब्राह्मी लिपि में 'न' एवं 'ण' वर्गों
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