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की दृष्टि से भी पर्याय-भेद होता है। ज्ञातव्य है कि जैन दर्शन में हम जिसे पर्याय कहते हैं उसे महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य के पशपाशाह्निक में आकृति कहा है। वे लिखते हैं 'द्रव्य नित्यमाकृतिरनित्या' । जिस पर्याय का संयोग (उत्पाद) होता है उसका विनाश भी निश्चित रूप से होता है। कोई भी द्रव्य कभी भी पर्याय से रहित नहीं होता। फिर भी द्रव्य की वे पर्यायें स्थिर भी नहीं रहती हैं वे प्रति समय परिवर्तित होती रहती हैं। जैन दार्शनिकों ने पर्याय परिवर्तन की इन घटनाओं को द्रव्य में होने वाले उत्पाद
और व्यय के माध्यम से स्पष्ट किया है। द्रव्य में प्रति क्षण पूर्व पर्याय का नाश या व्यय तथा उत्तर पर्याय का उत्पाद होता रहता है। उत्पाद और व्यय की घटना जिसमें या जिसके सहारे घटित होती है या जो परिवर्तित होता है, वही द्रव्य है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य और पर्याय में भी कथंचित् तादात्म्य इस अर्थ में है पर्याय से रहित होकर द्रव्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है। द्रव्य की पर्याय बदलते रहने पर भी द्रव्य में एक क्षण के लिए भी ऐसा नहीं होता कि वह पर्याय से रहित हो। सिद्धसेन दिवाकर का कथन है कि न तो पर्यायों से पृथक् होकर द्रव्य अपना अस्तित्त्व रख सकता है और न द्रव्य से पृथक होकर पर्याय का ही कोई अस्तित्त्व होता है। सत्तात्मक स्तर पर द्रव्य और पर्याय अलग-अलग सत्ताएँ नहीं हैं। वे तत्त्वत: अभिन्न हैं किन्तु द्रव्य के बने रहने पर भी पर्यायों की उत्पत्ति और विनाश का क्रम घटित होता रहता है। यदि पर्याय उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है, तो उसे द्रव्य से कथंचित् भिन्न भी मानना होगा। जिस प्रकार बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था व्यक्ति से पृथक कहीं नहीं देखी जाती । वे व्यक्ति में ही घटित होती हैं और व्यक्ति से अभिन्न होती हैं किन्तु एक ही व्यक्ति में बाल्यावस्था का विनाश और युवावस्था की प्राप्ति देखी जाती है। अत: अपने विनाश और उत्पत्ति की दृष्टि से वे पर्यायें व्यक्ति से पृथक ही कही जा सकती हैं। वैचारिक पर प्रत्येक पर्याय द्रव्य से भिन्नता रखती है । संक्षेप में तात्विक स्तर पर या सत्ता की दृष्टि से हम द्रव्य और पर्याय को अलग-अलग नहीं कर सकते, अत: वे अभिन्न हैं । किन्तु वैचारिक स्तर पर द्रव्य और पर्याय को परस्पर पृथक् माना जा सकता है क्योंकि पर्याय उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती हैं, जबकि द्रव्य बना रहता है,अत: वे द्रव्य से भिन्न भी होती हैं और अभिन्न भी । जैन आचार्यों के अनुसार द्रव्य और पर्याय की यह कथंचित् अभिन्नता और कथंचित् भिन्नता उनके अनेकांतिक दृष्टिकोण की परिचायक है। पर्याय के प्रकार (क) जीव पर्याय और अजीव पर्याय
पर्यायों के प्रकारों की आगमिक आधारों पर चर्चा करते हुए द्रव्यानुयोग
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