Book Title: Sadhna ki Sapranta Kayotsarga
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 2
________________ साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २७७ के अन्त में सामायिक प्रादि साधना करते हैं । अतः वह साधना आवश्यकपदवाच्य है । प्राकृत भाषा में आधार पद वाचक ''पापाश्रय' शब्द 'श्रावस्सय' कहलाता है । जो सद्गुणों की प्राधारभूमि हो, वह प्रावस्सय-पापाश्रय है । अावश्यक प्राध्यात्मिक समता, विनम्रता, आत्मनिरीक्षण आदि विविध गुणों का प्राधार है। इसलिए वह 'आपाश्रय' भी कहलाता है। जो आत्मा को दुर्गणों से हटाकर गुणों के वश्य-प्राधीन करे वह आवश्यक है। प्रा+वश्य = आवश्यक । गुणों से शून्य प्रात्मा को जो सद्गुणों से सर्वतः वासित करे, वह आवश्यक कहलाता है। आवस्सय का एक संस्कृत रूपान्तर पावासक भी होता है। उसका अर्थ है अनुरंजन करने वाला जो प्रात्मा का ज्ञान, दर्शन प्रादि गुणों से अनुरंजन करे, वह प्रावासक है। इस सन्दर्भ में मेरा विनम्र मन्तव्य है कि जो साधक विक्षेप-विकल्प, वैभव-विलास, विषय-कषाय, ललक-लालसा, ममता-तवता आदि के वश में न हो व उनसे अभिभूत न हो, वह अवश कहलाता है, उस अवश का जो आचरण है, वह अावश्यक है। आवश्यक के छह प्रकार हैं१. सामायिक-समता प्रधान साधना। २. चतुर्विंशतिस्तव-तीर्थंकर देव के गुणों का उत्कीर्तन । ३. वन्दन -सद्गुरुपों को श्रद्धापूर्वक नमस्कार । ४. प्रतिक्रमण-दोषों की आलोचना। ५. कायोत्सर्ग- शरीर के ममत्व का त्याग । ६. प्रत्याख्यान-आहार आदि की प्रासक्ति का त्याग । साधक के लिए सर्वप्रथम समभाव का पालन करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। समता को अपनाये बिना सद्गुणों का विकास होना कथमपि संभव नहीं है। जब तक विषम भावों की ज्वालाएँ साधक के अन्तर्मानस में धधकती रहेंगी तब तक वह तीर्थंकर महापुरुषों के सद्गुणों का समुत्कीर्तन नहीं कर सकता। अतएव षडावश्यक में प्रथम आवश्यक सामायिक है। सामायिक का आराधक-साधक ही महापुरुषों के सद्गुणों को सम्माननीय और ग्रहणीय मानकर उन गुणों को अपने जीवन में उतार सकता है। अतः सामायिक के बाद चतुर्विशतिस्तव रखा गया है। सद्गुणों का महत्त्व हृदयस्थ कर लेने के बाद ही साधक गुणी के सन्मुख सिर झुकाता है, भक्तिविभोर हो कर वन्दन करता है । वन्दन करनेवाले साधक का अन्तर्मन विनम्र होता है, जो विनम्र है, वह सरलमना साधक ही कृतदोषों की आलोचना करता है। अतएव वन्दन के बाद ही प्रतिक्रमण आवश्यक का क्रम अाया है । दोषों का स्मरण कर उनसे मुक्ति पाने हेतु तन-मन की स्थिरता अत्यावश्यक है। कायोत्सर्ग अावश्यक-साधना में तन और मन २. आपाश्रयो वा इदं गुणानाम्, प्राकृतशैल्या आवस्सयं । ३. गुणानां वश्यमात्मानं करोति-इति । ४. गुणशून्यमात्मानं गुणैरावासयतीति अावासकम् । ५. गुणः पावसकं अनुरजकम् सन्दर्भ १ से ५ तक की आधार-भूमि = विशेषावश्यक भाष्य गाथा-८७७ पौर ८७८ टीकाकार प्राचार्य कोटि धम्मो दीवो संसार समुत्र में धर्म ही दीप NAG .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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