Book Title: Sadhna ki Sapranta Kayotsarga Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 8
________________ साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २८१ संकल्प कर लेना चाहिए कि शरीर और है, प्रात्मा और है। प्राचार्य भद्रबाह ने कायोत्सर्ग के साधकों के लिए जिन तथ्यों का उल्लेख किया है, उनका एकमात्र उद्देश्य साधक में क्षमता का दृढ़ बल पैदा करना है, जिससे साधक दृढता के साथ कायोत्सर्ग में लीन हो जाता है। पर उसका यह अर्थ नहीं है कि साधक मिथ्याग्रह के चक्कर में पड़कर अज्ञानतावश अपना जीवन ही होम दे । कुछ साधकों की मन:स्थिति दुर्बल भी होती है। भगवान् महावीर ने उनके लिए कुछ प्रागारों को प्रोर संकेत किया है। जैसे-खांसी, छींक, डकार, मूर्छा आदि विविध शारीरिक व्याधियों का भी प्रागार रक्खा जाता है। क्योंकि शरीर शरीर है और वह व्याधि का मन्दिर है। कायोत्सर्ग की साधना में समाधि की अभिवृद्धि हो, वह कायोत्सर्ग ही लाभप्रद है, हितावह है। किन्तु जिस कार्य को करने से असमाधि की वृद्धि होती है, आर्तध्यान और रौद्रध्यान में परिणति होती है वह कायोत्सर्ग के नाम पर किया गया कायक्लेश मात्र है। कायोत्सर्ग का अभिप्राय केवल इतना ही नहीं है कि शारीरिक चंचलता का निरोध कर वक्ष के समान, पर्वत के समान या सूखे काष्ठ के समान साधक निश्चल और निस्पन्द स्थिति में खड़ा हो जाए। शरीर से सम्बन्धित निष्पन्दता तो एकेन्द्रिय आदि जीवों में भी होती है । पर्वत पर कितना भी प्रहार करो, वह कब चंचल होता है ? वह किसी के प्रति भी रोष-पाक्रोश नहीं करता है। उसमें जो स्थैर्य है, वह अविकासशील-विवेकविकल प्राणी का स्थैर्य है। किन्तु कायोत्सर्ग में होने वाला स्थैर्य विवेकपूर्वक होता है। तप के कुल बारह प्रकार हैं। १६व्युत्सर्ग तप का बारहवां भेद और प्राभ्यन्तर-तप का छठा प्रकार है । प्रस्तुत तप को तीन प्रकार से स्पष्ट किया गया है-१६ १. अहंकार और ममकार रूप संकल्पों का त्याग करना । २. कायोत्सर्ग आदि करना । ३. व्युत्सर्जन करना भी व्युत्सर्ग है, इसे त्याग भी कहा गया है । शरीर व उसके आहार में प्रवृत्ति को हटाकर ध्येय वस्तु में चित्त की एकाग्रता करना कर्मबन्ध के हेतुभूत बाह्य एवं प्राभ्यन्तर दोषों का भलीभाँति परित्याग करना व्युत्सर्ग है।२० व्युत्सर्ग शब्द "वि" और "उत्" उपसर्ग के संयोग से बना है। यहाँ "वि" अर्थ होता है १६. आवश्यकनियुक्ति, गाथा-१५५२ १७. आवश्यकसूत्र १८. (क) भगवतीसूत्र-२५।६ (ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन-३० (ग) मूलाचार-३४५ (घ) कातिकेयानुप्रेक्षा-१०२ (ङ) सर्वार्थ सिद्धि-९।१९ - (च) चारित्रसार-१३३ १९. सर्वार्थसिद्धि ९।२०, ९।२२, ९।२६ २०. (क) अनगारधर्मामृत ७।९४ (ख) धवला ८।३, ४११८५ धम्मो दीवो नदार असुख में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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