Book Title: Sadhna aur Samaj Seva ka Saha Jain Dharm ke Pariprekshya me Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 3
________________ साधना और समाज सेवा जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में 1: बनने का सबसे पहला उपक्रम है। यदि हमारे जीवन में दूसरों की पीड़ा, दूसरों का दर्द अपना नहीं बना है तो हमें यह निश्चित ही समझ लेना चाहिये कि हममेंधर्म का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों की पीड़ा आत्मनिष्ठ अनुभूति से जागृत दायित्वबोध की अन्तश्चेतना के बिना सारे धार्मिक क्रियाकाण्ड पाखण्ड या ढोंग है। उनका धार्मिकता से दूर का रिश्ता नहीं है। जैन धर्म में सम्यक दर्शन (जो कि धार्मिकता की आधार भूमि है) के जो पाँच अंग माने गये हैं, उनमें समभाव और अनुकम्पा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है सामाजिक दृष्टि से समभाव का अर्थ है, दूसरों को अपने समान समझना, क्योंकि अहिंसा एवं लोककल्याण की अन्तश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जिस प्रकार मैं जीना चाहता हूँ, मरना नहीं चाहता हूँ, उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन के इच्छुक हैं और मृत्यु से भयभीत हैं। जिस प्रकार में सुख की प्राप्ति का इच्छुक हूँ और दुःख से बचना चाहता है, उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी सुख के इच्छुक हैं, और दुःख से दूर रहना चाहते हैं। यही वह दृष्टि है जिस पर अहिंसा का धर्म का और नैतिकता का विकास होता है। जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव अर्थात् समानता का भाव जागृत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती अर्थात् उनकी पीड़ा हमारी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक् दर्शन का उदय भी नहीं होता, जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न शेर इस सम्बन्ध में कितना मौजू है— इमां गलत उशूल गलत, इदुआ गलत । इंसा की दिलदिही, अगर इंसा न कर सके । । जब दूसरों की पीड़ा अपनी बन जाती है तो सेवा की भावना का उदय होता है। यह सेवा न तो प्रदर्शन के लिए होती है और न स्वार्थबुद्धि से होती है, वह हमारे स्वभाव का ही सहज प्रकटन होती है तब हम जिस भाव से अपने शरीर की पीड़ाओं का निवारण करते हैं उसी भाव से दूसरों की पीड़ाओं का निवारण करते हैं, क्योंकि जो आत्मबुद्धि अपने शरीर के प्रति होती है वही आत्मबुद्धि समाज के सदस्यों के प्रति भी हो जाती है, क्योंकि सम्यक् दर्शन के पश्चात् आत्मवत् दृष्टि का उदय हो जाता है जहाँ आत्भवत् दृष्टि का उदय होता है वहाँ हिंसक बुद्धि समाप्त हो जाती है और सेवा स्वाभाविक रूप से साधना का अंग बन जाती है। जैन धर्म में ऐसी सेवा को निर्जरा या तप का रूप माना गया है। इसे 'वैयावच्च' के रूप में माना जाता है। मुनि नन्दिसेन की सेवा का उदाहरण तो जैन परम्परा में सर्वविश्रुत है। आवश्यकचूर्णि में सेवा के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा है कि एक व्यक्ति भगवान् का नाम स्मरण करता है, भक्ति करता है, किन्तु दूसरा वृद्ध और रोगी की सेवा करता है, उन दोनों में सेवा करने वाले को ही श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि वह सही अर्थों में भगवान् की आज्ञा का पालन करता है, दूसरे शब्दों में धर्ममय जीवन जीता है। जैन समाज का यह दुर्भाग्य है कि निवृत्तिमार्ग या संन्यास पर अधिक बल देते हुए भी उसमें सेवा की भावना गौण होती चली गई Jain Education International ५०३ उसकी अहिंसा मात्र मत मारो' का निषेधक उद्घोष बन कर रह गई। किन्तु यह एक भ्रांति ही है। बिना 'सेवा' के अहिंसा अधूरी है और संन्यास निष्क्रिय है। जब संन्यास और अहिंसा में सेवा का तत्त्व जुड़ेगा तभी वे पूर्ण बनेंगे। संन्यास और समाज सामान्यतया भारतीय दर्शन में संन्यास के प्रत्यय को समाजनिरपेक्ष माना जाता है किन्तु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष है? निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है किन्तु इससे क्या वह असामाजिक हो जाता है? संन्यास के संकल्प में वह कहता है कि "वित्तैषणा पुत्रैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता अर्थात् मैं अर्थ कामना, सन्तान कामना और यश कामना का परित्याग करता हूँ जैन परम्परा के अनुसार वह सावद्ययोग या पापकर्मों का त्याग करता है । किन्तु क्या धन-सम्पदा, सन्तान तथा यश-कीर्ति की कामना का या पाप कर्म का परित्याग समाज का परित्याग है? वस्तुतः समस्त एषणाओं का त्याग या पाप कर्मों का त्याग स्वार्थ का त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है। संन्यास का यह संकल्प उसे समाज विमुख नहीं बनाता है, अपति समाज कल्याण की उच्चतर भूमिका पर अधिष्ठित करता है क्योंकि सच्चा लोकहित निस्वार्थता एवं विराग की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है। भारतीय चिन्तन संन्यास को समाज निरपेक्ष नहीं मानता। भगवान् बुद्ध का यह आदेश "चरत्थ भिक्खवे चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्याय हिताय देवमनुस्सानं" (विनयपिटक, महावग्ग)। इस बात का प्रमाण है कि संन्यास लोकमंगल के लिए होता है। सच्चा संन्यासी वह है जो समाज से अल्पतम लेकर उसे अधिकतम देता है। वस्तुतः वह कुटुम्ब, परिवार आदि का त्याग इसलिए करता है कि समष्टि का होकर रहे, क्योंकि जो किसी का है, वह सवका नहीं हो सकता, जो सबका है वह किसी का नहीं है। संन्यासी निःस्वार्थ और निष्काम रूप से लोकमंगल का साधक होता है। संन्यास शब्द सम्पूर्वक न्यास शब्द से बना है। न्यास शब्द का अर्थ देखरेख करना भी है। संन्यासी वह व्यक्ति है जो सम्यक् रूप से एक न्यासी (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है और न्यासी वह है जो ममत्वभाव और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट (सम्पदा) का रक्षण एवं विकास करता है। संन्यासी सच्चे अर्थों में एक ट्रस्टी है। जो ट्रस्ट की सम्पदा ट्रस्टी का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका स्वामी समझता है, वह सम्यक ट्रस्टी नहीं हो सकता है। वह यदि ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे तो भी सच्चे अर्थ में ट्रस्टी नहीं है। इसी प्रकार यदि संन्यासी लोकेषणा से युक्त है, ममत्वबुद्धि या स्वार्थबुद्धि से काम करता है तो वह संन्यासी नहीं है और यदि लोक की उपेक्षा करता है, लोकमंगल के लिए प्रयास नहीं करता है तो भी वह संन्यासी नहीं है उसके जीवन का मिशन तो "सर्वभूतहिते रतः " का है। संन्यास में राग से ऊपर उठना आवश्यक है। किन्तु इसका तात्पर्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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