Book Title: Sadhna aur Samaj Seva ka Saha Jain Dharm ke Pariprekshya me
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना और समाज सेवा : जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में वैयक्ति कता और सामाजिकता दोनों ही मानवीय जीवन के रहे हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीर्थकरों अनिवार्य अंग हैं। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले का कथन है कि 'मनुष्य का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों की करुणा के लिए मनुष्य नहीं है यदि वह सामाजिक नहीं है।' मनुष्य समाज में ही उत्पन्न ही है। जैन धर्म में जो सामाजिक जीवन या संघ जीवन के सन्दर्भ होता है, समाज में ही जीता है और समाज में ही अपना विकास उपस्थित हैं, वे बाहर से देखने पर निषेधात्मक लगते हैं, इसी आधार करता है। वह कभी भी सामाजिक जीवन से अलग नहीं हो सकता पर कभी-कभी यह मान लिया जाता है कि जैन धर्म एक समाजहै। तत्त्वार्थसूत्र में जीवन की विशिष्टता को स्पष्ट करते हुए कहा गया निरपेक्ष धर्म है। जैनों ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह है कि पारस्परिक सहयोग ही जीवन का मूलभूत लक्षण है। व्यक्ति की व्याख्या मुख्य रूप से निषेधात्मक दृष्टि के आधार पर की है, में राग और द्वेष के तत्त्व अनिवार्य रूप से उपस्थित हैं किन्तु जब किन्तु उनको निषेधात्मक और समाज-निरपेक्ष समझ लेना भ्रान्ति पूर्ण द्वेष का क्षेत्र संकुचित होकर राग का क्षेत्र विस्तृत होता है तब व्यक्ति ही है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में ही स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि में सामाजिक चेतना का विकास होता है और यह सामाजिक चेतना ये पाँच महाव्रत सर्वथा लोकहित के लिए ही हैं। जैन धर्म में जो व्रतवीतरागता की उपलब्धि के साथ पूर्णता को प्राप्त करती है, क्योंकि व्यवस्था है वह सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास है। हिंसा, वीतरागता की भूमिका पर स्थित होकर ही निष्काम भावना से और असत्य वचन, चौर्यकर्म, व्यभिचार और संग्रह (परिग्रह) हमारे सामाजिक कर्तव्य-बुद्धि से लोक-मंगल किया जा सकता है। अत: जैन धर्म का, जीवन को दूषित बनाने वाले तत्व हैं। हिंसा सामाजिक अनस्तित्व वीतरागता और मोक्ष का आदर्श सामाजिकता का विरोधी नहीं है। की द्योतक है, तो असत्य पारस्परिक विश्वास को भंग करता है। चोरी मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके व्यक्तित्व का निर्माण का तात्पर्य तो दूसरों के हितों और आवश्यकताओं का अपहरण और सामाजिक जीवन पर आधारित है। व्यक्ति जो कुछ बनता है वह अपने शोषण ही है। व्यभिचार जहाँ एक ओर पारिवारिक जीवन को भंग सामाजिक परिवेश के द्वारा ही बनता है। समाज ही उसके व्यक्तित्व करता है, वहीं दूसरी ओर वह दूसरे को अपनी वासनापूर्ति का साधन और जीवन-शैली का निर्माता है। यद्यपि जैन धर्म सामान्यतया व्यक्तिनिष्ठ मानता है और इस प्रकार से वह भी एक प्रकार का शोषण ही है। तथा निवृत्तिप्रधान है और उसका लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, किन्तु इसी प्रकार परिग्रह भी दूसरों को उनके जीवन की आवश्यकताओं इस आधार पर यह मान लेना कि जैनधर्म असामाजिक है या उसमें और उपयोगों से वंचित करता है, समाज में वर्ग बनाता है और सामाजिक सामाजिक सन्दर्भ का अभाव है, नितांत भ्रमपूर्ण होगा। जैन साधना शान्ति को भंग करता है। संग्रह के आधार पर जहाँ एक वर्ग सुख, यद्यपि व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की बात करती है किन्तु उसका सुविधा और ऐश्वर्य की गोद में पलता है वही दूसरा जीवन की मूलभूत तात्पर्य यह भी नहीं है कि वह सामाजिक कल्याण की उपेक्षा करती है। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी तरसता है। फलत: सामाजिक यदि हम मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म को जीवन में वर्ग-विद्वेष और आक्रोश उत्पन्न होते हैं और इस प्रकार 'धों धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में धर्म का ___सामाजिक शान्ति और सामाजिक समत्व भंग हो जाते हैं। सूत्रकृतांग अर्थ होगा-जो हमारी समाज-व्यवस्था को बनाये रखता है, वही धर्म में कहा गया है कि यह संग्रह की वृत्ति ही हिंसा, असत्य, चौर्य कर्म है। वे सब बातें जो सामाजिक जीवन में बाधा उपस्थित करती हैं और तथा व्यभिचार को जन्म देती है और इस प्रकार से वह सम्पूर्ण सामाजिक हमारे स्वार्थों को पोषण देकर हमारी सामाजिकता को खण्डित करती जीवन की विषाक्त बनाती है। यदि हम इस सन्दर्भ में सोचे तो यह स्पष्ट हैं, सामाजिक जीवन में अव्यवस्था और अशांति की कारणभूत होती लगेगा कि जैन धर्म में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं, अधर्म है। इसलिए घृणा, विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता आदि की जो अवधारणायें हैं, वे मूलत: सामाजिक जीवन के लिए ही है। को अधर्म और परोपकार, करुणा, दया, सेवा आदि की धर्म कहा जैन साधना-पद्धति को मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थ की गया है। क्योंकि जो मूल्य हमारी सामाजिकता की स्वाभाविक-वृत्ति भावनाओं के आधार पर भी उसके सामाजिक सन्दर्भ को स्पष्ट किया का रक्षण करते हैं वे धर्म हैं और जो उसे खण्डित करते हैं वे अधर्म जा सकता है। आचार्य अमितगति कहते हैंहैं। धर्म की यह व्याख्या दूसरों से हमारे सम्बन्धों के सन्दर्भ में है सत्वेषु मैत्री, गुणीषु प्रमोदं, और इसलिए इसे हम सामाजिक-धर्म भी कह सकते हैं। क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वं जैनधर्म सदैव यह मानता रहा है कि साधना से प्राप्त सिद्धि माध्यस्थाभावं विपरीत वृत्तौ का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में होना चाहिए। स्वयं भगवान् सदा ममात्मा विद्धातु देव। महावीर का जीवन इस बात का साक्षी है कि वे वीतरागता और कैवल्य "हे प्रभु ! हमारे जीवन में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणीजनों की प्राप्ति के पश्चात् जीवन पर्यन्त लोकमंगल के लिए कार्य करते के प्रति प्रमोद, दुखियों के प्रति करुणा तथा दुष्ट जनों के प्रति माध्यस्थ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भाव विद्यमान रहे।" इस प्रकार इन चारों भावनाओं के माध्यम से जैसा कि हम पूर्व में ही संकेत कर चुके हैं कि जैनाचार्य उमास्वाति समाज के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से हमारे सम्बन्ध किस प्रकार ने भी न केवल मनुष्य का अपतुि समस्त जीवन का लक्षण 'पारस्परिक के हों इसे स्पष्ट किया गया है। समाज में दूसरे लोगों के साथ हम हित साधन' को माना है। दूसरे प्राणियों का हित साधन व्यक्ति का किस प्रकार जीवन जीयें, यह हमारी सामाजिकता के लिये अति धर्म है। धार्मिक होने का एक अर्थ यह है कि हम एक दूसरे के कितने आवश्यक है। वस्तुत: इसमें संघीय जीवन पर बल दिया गया है व सहयोगी बने हैं, दूसरे के दु:ख और पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें संघीय या सामूहिक साधना को श्रेष्ठ माना गया है। जो व्यक्ति संघ और उसके निराकरण का प्रयत्न करें, यही धर्म है। धर्म की लोक में विघटन करता है उसे हत्यारे और व्यभिचारी से भी अधिक पापी कल्याणकारी चेतना का प्रस्फुटन लोक पीड़ा निवारण के लिए ही हुआ माना गया है और उसके लिये छेदसूत्रों में कठोरतम दण्ड की व्यवस्था है और यही धर्म का सारतत्व है। कहा भी हैकी गई है। स्थानांगसूत्र में कुलधर्म, ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रीयधर्म, यही है इबादत, यही है दीनों इमां गणधर्म आदि का निर्देश किया गया है, जो उसकी सामाजिक दृष्टि कि काम आये दुनिया में, इंसां के इंसां। को स्पष्ट करते हैं। जैन धर्म ने सदैव ही व्यक्ति को सामाजिक जीवन दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न करना, से जोड़ने का ही प्रयास किया है। जैन धर्म का हृदय रिक्त नहीं है। यही धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। सन्त तुलसीदास ने भी कहा हैतीर्थंकर की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की करुणा के लिए हुआ परहित सरिस धरम नहिं भाई, है। आर्चाय मन्तभद्र लिखते हैं-"सर्वापदामन्तकरं, निरन्तं सर्वोदयं परपीड़ा सम नहीं अधमाई। तीर्थमिदम् तवैव' हे प्रभु! आपका तीर्थ (अनुशासन) सभी दुःखों का अहिंसा, जिसे जैन परम्परा में धर्म सर्वस्व कहा गया है कि चेतना अन्त करने वाला और सभी का कल्याण या सर्वोदय करने वाला है। का विकास तभी सम्भव है जब मनुष्य में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की उसमें प्रेम और करुणा की अटूट धारा बह रही है। स्थानांग में प्रस्तुत भावना का विकास होगा। जब हम दूसरों के दर्द और पीड़ा को अपना कुलधर्म, ग्रामधर्म, नगरधर्म एवं राष्ट्रधर्म भी जैन धर्म की समाज-सापेक्षता दर्द समझेंगे तभी हम लोकमंगल की दिशा में अथवा पर पीड़ा के को स्पष्ट कर देते हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे निवारण की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। पर पीड़ा की तरह आत्मानुभूति पारस्परिक सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजनपूर्ण बनाने तथा सामाजिक भी वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होना चाहिये। हम दूसरों की पीड़ा टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए जैन के मूक दर्शक न रहें। ऐसा धर्म और ऐसी अहिंसा जो दूसरों की धर्म का योगदान महत्त्वपूर्ण है। पीड़ा की मूक दर्शक बनी रहती है वस्तुतः न धर्म है और न अहिंसा। वस्तुत: जैन धर्म ने आचार-शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति सुधार अहिंसा केवल दूसरों को पीड़ा न देने तक सीमित नहीं है, उसमें के माध्यम से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उसने व्यक्ति को लोकमंगल और कल्याण का अजस्र स्रोत भी प्रवाहित है। जब लोकपीड़ा समाज की इकाई माना और इसलिए प्रथमत: व्यक्ति चरित्र के निर्माण अपनी पीड़ा बन जाती है तभी धार्मिकता का स्रोत अन्दर से बाहर पर बल दिया। वस्तुत: महावीर से युगों पूर्व समाज रचना का कार्य प्रवाहित होता है। तीर्थंकरों, अर्हतों और बुद्धों ने जब लोकपीड़ा की ऋषभ के द्वारा पूरा हो चुका था, अत: महावीर ने मुख्य रूप से सामाजिक अनुभूति आत्मनिष्ठ रूप में की तो वे लोककल्याण के लिए सक्रिय जीवन की बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया और सामाजिक बन गये। जब दूसरों की पीड़ा और वेदना हमें अपनी लगती है, तब सम्बन्धों की शुद्धि पर बल दिया। लोक कल्याण भी दूसरों के लिए न होकर अपने ही लिए हो जाता सामाजिकता मनुष्य का एक विशिष्ट गुण है। वैसे तो सामूहिक है। उर्दूशायर अमीर ने कहा हैजीवन पशुओं में भी पाया जाता है किन्तु मनुष्य की सामूहिक खंजर चले किसी पे, तड़पते हैं हम अमीर, जीवन-शैली उनसे कुछ विशिष्ट है। पशुओं में पारस्परिक सम्बन्ध तो सारे जहां का दर्द, हमारे जिगर में है। होते हैं किन्तु उन सम्बन्धों की चेतना नहीं होती है। मनुष्य जीवन जब सारे जहाँ का दर्द किसी हृदय में समा जाता है तो वह की विशेषता यह है कि उसे इन पारस्परिक सम्बन्धों की चेतना होती लोककल्याण के मंगलमय मार्ग पर चल पड़ता है और तीर्थंकर बन है और उसी चेतना के कारण उसमें एक दूसरे के प्रति दायित्व-बोध जाता है। उसका यह चलना मात्र बाहरी नहीं होता है। उसके सारे और कर्त्तव्य-बोध होता है। पशुओं में भी पारस्परिक हित साधन की व्यवहार में अन्तश्चेतना काम करती है और यही अन्तश्चेतना धार्मिकता प्रवृत्ति होती है किन्तु वह एक अन्धमूल प्रवृत्ति है। पशु विवश होता का मूल उत्स है। इसे ही दायित्वबोध की सामाजिक चेतना कहा जाता है, उस अन्ध प्रवृत्ति के अनुसार ही आचरण करने में। उसके सामने है। जब यह जाग्रत होती है तो मनुष्य में धार्मिकता प्रकट होती है। यह विकल्प नहीं होता है कि वह कैसा आचरण करे या नहीं करे। आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन वही किन्तु इस सम्बन्ध में मानवीय चेतना स्वतन्त्र होती है उसमें अपने साधक करता है जो धर्म संघ की सेवा में अपने को समर्पित कर देता दायित्व बोध की चेतना होती है। किसी उर्दशायर ने कहा भी है- है। तीर्थकर नामकर्म उपार्जित करने के लिए जिन बीस बोलों की साधना वह आदमी ही क्या है, जो दर्द आशना न हो। करनी होती है, उनके विश्लेषण से यह लक्ष्य स्पष्ट हो जाता है। पत्थर से कम है, दिल शरर गर निहा नहीं।। दूसरों के प्रति आत्मीयता के भाव का जागृत होना ही धार्मिक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना और समाज सेवा जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में 1: बनने का सबसे पहला उपक्रम है। यदि हमारे जीवन में दूसरों की पीड़ा, दूसरों का दर्द अपना नहीं बना है तो हमें यह निश्चित ही समझ लेना चाहिये कि हममेंधर्म का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों की पीड़ा आत्मनिष्ठ अनुभूति से जागृत दायित्वबोध की अन्तश्चेतना के बिना सारे धार्मिक क्रियाकाण्ड पाखण्ड या ढोंग है। उनका धार्मिकता से दूर का रिश्ता नहीं है। जैन धर्म में सम्यक दर्शन (जो कि धार्मिकता की आधार भूमि है) के जो पाँच अंग माने गये हैं, उनमें समभाव और अनुकम्पा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है सामाजिक दृष्टि से समभाव का अर्थ है, दूसरों को अपने समान समझना, क्योंकि अहिंसा एवं लोककल्याण की अन्तश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जिस प्रकार मैं जीना चाहता हूँ, मरना नहीं चाहता हूँ, उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन के इच्छुक हैं और मृत्यु से भयभीत हैं। जिस प्रकार में सुख की प्राप्ति का इच्छुक हूँ और दुःख से बचना चाहता है, उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी सुख के इच्छुक हैं, और दुःख से दूर रहना चाहते हैं। यही वह दृष्टि है जिस पर अहिंसा का धर्म का और नैतिकता का विकास होता है। जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव अर्थात् समानता का भाव जागृत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती अर्थात् उनकी पीड़ा हमारी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक् दर्शन का उदय भी नहीं होता, जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न शेर इस सम्बन्ध में कितना मौजू है— इमां गलत उशूल गलत, इदुआ गलत । इंसा की दिलदिही, अगर इंसा न कर सके । । जब दूसरों की पीड़ा अपनी बन जाती है तो सेवा की भावना का उदय होता है। यह सेवा न तो प्रदर्शन के लिए होती है और न स्वार्थबुद्धि से होती है, वह हमारे स्वभाव का ही सहज प्रकटन होती है तब हम जिस भाव से अपने शरीर की पीड़ाओं का निवारण करते हैं उसी भाव से दूसरों की पीड़ाओं का निवारण करते हैं, क्योंकि जो आत्मबुद्धि अपने शरीर के प्रति होती है वही आत्मबुद्धि समाज के सदस्यों के प्रति भी हो जाती है, क्योंकि सम्यक् दर्शन के पश्चात् आत्मवत् दृष्टि का उदय हो जाता है जहाँ आत्भवत् दृष्टि का उदय होता है वहाँ हिंसक बुद्धि समाप्त हो जाती है और सेवा स्वाभाविक रूप से साधना का अंग बन जाती है। जैन धर्म में ऐसी सेवा को निर्जरा या तप का रूप माना गया है। इसे 'वैयावच्च' के रूप में माना जाता है। मुनि नन्दिसेन की सेवा का उदाहरण तो जैन परम्परा में सर्वविश्रुत है। आवश्यकचूर्णि में सेवा के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा है कि एक व्यक्ति भगवान् का नाम स्मरण करता है, भक्ति करता है, किन्तु दूसरा वृद्ध और रोगी की सेवा करता है, उन दोनों में सेवा करने वाले को ही श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि वह सही अर्थों में भगवान् की आज्ञा का पालन करता है, दूसरे शब्दों में धर्ममय जीवन जीता है। जैन समाज का यह दुर्भाग्य है कि निवृत्तिमार्ग या संन्यास पर अधिक बल देते हुए भी उसमें सेवा की भावना गौण होती चली गई ५०३ उसकी अहिंसा मात्र मत मारो' का निषेधक उद्घोष बन कर रह गई। किन्तु यह एक भ्रांति ही है। बिना 'सेवा' के अहिंसा अधूरी है और संन्यास निष्क्रिय है। जब संन्यास और अहिंसा में सेवा का तत्त्व जुड़ेगा तभी वे पूर्ण बनेंगे। संन्यास और समाज सामान्यतया भारतीय दर्शन में संन्यास के प्रत्यय को समाजनिरपेक्ष माना जाता है किन्तु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष है? निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है किन्तु इससे क्या वह असामाजिक हो जाता है? संन्यास के संकल्प में वह कहता है कि "वित्तैषणा पुत्रैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता अर्थात् मैं अर्थ कामना, सन्तान कामना और यश कामना का परित्याग करता हूँ जैन परम्परा के अनुसार वह सावद्ययोग या पापकर्मों का त्याग करता है । किन्तु क्या धन-सम्पदा, सन्तान तथा यश-कीर्ति की कामना का या पाप कर्म का परित्याग समाज का परित्याग है? वस्तुतः समस्त एषणाओं का त्याग या पाप कर्मों का त्याग स्वार्थ का त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है। संन्यास का यह संकल्प उसे समाज विमुख नहीं बनाता है, अपति समाज कल्याण की उच्चतर भूमिका पर अधिष्ठित करता है क्योंकि सच्चा लोकहित निस्वार्थता एवं विराग की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है। भारतीय चिन्तन संन्यास को समाज निरपेक्ष नहीं मानता। भगवान् बुद्ध का यह आदेश "चरत्थ भिक्खवे चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्याय हिताय देवमनुस्सानं" (विनयपिटक, महावग्ग)। इस बात का प्रमाण है कि संन्यास लोकमंगल के लिए होता है। सच्चा संन्यासी वह है जो समाज से अल्पतम लेकर उसे अधिकतम देता है। वस्तुतः वह कुटुम्ब, परिवार आदि का त्याग इसलिए करता है कि समष्टि का होकर रहे, क्योंकि जो किसी का है, वह सवका नहीं हो सकता, जो सबका है वह किसी का नहीं है। संन्यासी निःस्वार्थ और निष्काम रूप से लोकमंगल का साधक होता है। संन्यास शब्द सम्पूर्वक न्यास शब्द से बना है। न्यास शब्द का अर्थ देखरेख करना भी है। संन्यासी वह व्यक्ति है जो सम्यक् रूप से एक न्यासी (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है और न्यासी वह है जो ममत्वभाव और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट (सम्पदा) का रक्षण एवं विकास करता है। संन्यासी सच्चे अर्थों में एक ट्रस्टी है। जो ट्रस्ट की सम्पदा ट्रस्टी का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका स्वामी समझता है, वह सम्यक ट्रस्टी नहीं हो सकता है। वह यदि ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे तो भी सच्चे अर्थ में ट्रस्टी नहीं है। इसी प्रकार यदि संन्यासी लोकेषणा से युक्त है, ममत्वबुद्धि या स्वार्थबुद्धि से काम करता है तो वह संन्यासी नहीं है और यदि लोक की उपेक्षा करता है, लोकमंगल के लिए प्रयास नहीं करता है तो भी वह संन्यासी नहीं है उसके जीवन का मिशन तो "सर्वभूतहिते रतः " का है। संन्यास में राग से ऊपर उठना आवश्यक है। किन्तु इसका तात्पर्य . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ह समाज की उपेक्षा नहीं है। संन्यास की भूमिका में स्वत्व एवं ममत्व को स्पष्ट करता है। इसमें भी दान के स्थान पर 'संविभाग' शब्द का के लिए निश्चय ही कोई स्थान नहीं है। फिर भी वह पलायन नहीं, प्रयोग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, वह यह बताता है कि दूसरे के लिए समर्पण है। ममत्व का परित्याग कर्तव्य की उपेक्षा नहीं है, अपित् हम जो कुछ करते हैं, वह हमारा उसके प्रति एहसान नहीं है, अपितु कर्तव्य का सही बोध है। संन्यासी उस भूमिका पर खड़ा होता है, उसका ही अधिकार है, जो हम उसे देते हैं। समाज से जो हमें मिला जहाँ व्यक्ति अपने में समष्टि को और समष्टि में अपने को देखता है। है, वही हम सेवा के माध्यम से उसे लौटाते हैं। व्यक्ति को शरीर, उसकी चेतना अपने और पराये के भेद से ऊपर उठ जाती है। यह सम्पति, ज्ञान और संस्कार जो भी मिले हैं, वे सब समाज और अपने और पराये के विचार से ऊपर हो जाना समाज विमुखता नहीं सामाजिक-व्यवस्था के परिणामस्वरूप मिले हैं। अत: समाज की सेवा है, अपितु यह तो उसके हृदय की व्यापकता है, महानता है। इसलिए उसका कर्तव्य है। धर्म साधना का अर्थ है निष्काम भाव से कर्तव्यों भारतीय चिन्तकों ने कहा है का निर्वाह करना। इस प्रकार साधना और सेवा न तो विरोधी हैं और अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। न भिन्न ही। वस्तुत: सेवा ही साधना है। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।। संन्यास की भूमिका न तो आसक्ति की भूमिका है और न उपेक्षा अहिंसा का हृदय रिक्त नहीं है की। उसकी वास्तविक स्थिति 'धाय' (नर्स) के समान ममत्वरहित कर्त्तव्य कुछ लोग अहिंसा को मात्र निषेधात्मक आदेश मान लेते हैं। भाव की होती है। जैन धर्म में कहा भी गया है उनके लिए अहिंसा का अर्थ होता है 'किसी को नहीं मारना' किन्तु सम दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल। अहिंसा चाहे शाब्दिक रूप में निषेधात्मक हो, उसकी आत्मा निषेधमूलक अन्तर सूं न्यारा रहे जूं धाय खिलावे बाल। नहीं है, उसका हृदय रिक्त नहीं है। उसमें करुणा और मैत्री की सहस्रधारा वस्तुतः निर्ममत्व एवं निःस्वार्थ भाव से तथा वैयक्तिकता और प्रवाहित हो रही है। वह व्यक्ति जो दूसरों की पीड़ा का मूक दर्शक स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्त्तव्य का पालन ही संन्यास की सच्ची भूमिका बना रहता है वह सच्चे अर्थ में अहिंसक है ही नहीं। जब हृदय में है। संन्यासी वह व्यक्ति है जो लोकमंगल के लिए अपने व्यक्तित्व मैत्री और करुणा के भाव उमड़ रहे हों, जब संसार के सभी प्राणियों एवं शरीर को समर्पित कर देता है। वह जो कुछ भी त्याग करता के प्रति आत्मवत् भाव उत्पन्न हो गया है, तब यह सम्भव नहीं है है वह समाज के लिए एक आदर्श बनता है। समाज में नैतिक चेतना कि व्यक्ति दूसरों की पीड़ाओं का मूक दर्शक रहे, क्योंकि उसके लिए को जागृत करना तथा सामाजिक जीवन में आनेवाली दुष्प्रवृतियों से कोई पराया रह ही नहीं जाता है। यह एक आनुभविक सत्य है कि व्यक्ति को बचाकर लोकमंगल के लिए उसे दिशा-निर्देश देना-संन्यासी व्यक्ति जिसे अपना मान लेता है, उसके दुःख और कष्टों का मूक का सर्वोपरि कर्त्तव्य माना जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि भारतीय दर्शक नहीं रह सकता है। अत: अहिंसा और सेवा एक दूसरे से अभिन्न दर्शन में संन्यास की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है वह सामाजिकता हैं। अहिंसक होने का अर्थ है-सेवा के क्षेत्र में सक्रिय होना। जब की विरोधी नहीं है। संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हमारी धर्म साधना में सेवा का तत्त्व जुड़ेगा तब ही हमारी साधना हआ व्यक्ति होता है, जो आदर्श समाज-रचना के लिये प्रयत्नशील में पूर्णता आयेगी। हमें अपनी अहिंसा को हृदय शून्य नहीं बनने देना रहता है। है अपितु उसे मैत्री और करुणा से युक्त बनाना है। जब अहिंसा में अत: संन्यासी को न तो निष्क्रिय होना चाहिए और न ही समाज मैत्री और करुणा के भाव जुड़ेंगे तो सेवा का प्रकटन सहज होगा और विमुख। वस्तुत: निष्काम-भाव से संघ की या समाज की सेवा को धर्म साधना का क्षेत्र सेवा का क्षेत्र बन जायेगा। ही उसे अपनी साधना का अंग बनाना चाहिए। जैन धर्म के उपासक सदैव ही प्राणी सेवा के प्रति समर्पित रहे हैं। आज भी देश भर में उनके द्वारा संचालित पशु सेवा सदन (पांजरापोल), गृहस्थ-धर्म और सेवा चिकित्सालय, शिक्षा संस्थाएँ और अतिथि शालाएं उनकी सेवा-भावना न केवल संन्यासी अपितु गृहस्थ की साधना में भी सेवा को का सबसे बड़ा प्रमाण है। श्रमण वर्ग भी इनका प्रेरक तो रहा है किन्तु अनिवार्य रूप से जुड़ना चाहिए। दान और सेवा गृहस्थ के आवश्यक यदि वह भी सक्रिय रूप से इन कार्यों से जुड़ सके तो भविष्य में कर्तव्य है। उसका अतिथिसंविभागवत सेवा सम्बन्धी उसके दायित्व जैन समाज मानव सेवा के क्षेत्र में एक मानदण्ड स्थापित कर सकेगा। 1. 2. तत्त्वार्थसूत्र, विवे०पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, 1976; 5/2 / सव्व च-जगजीव-रक्खण दयट्ठाए पावयणं सुकहियं-प्रश्नव्याकरणसूत्र, संपा० मुनि हस्तिमलजी, प्रका० हस्तीमल सुराणा, पाली, 1950, 2/1/21 / 3. सामायिक पाठ, संपा० प्रेमराज बोगावत, प्रका० सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर 1975; 1 / 4. स्थानांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, (1981) 10/760 /