Book Title: Sadhna Ka Kendrabindu Antarman Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 3
________________ वाले व्यक्ति को ही हो सकती है। यह आप मानते हैं, फिर मन आपके लिए दुविधा की वस्तु क्यों है ? उसे ऐसा भूत समझते हैं कि जो जबर्दस्ती आपके पीछे लग गया है। श्रात्मप्रिय बन्धुप्रो ! यह तो वह देवत्व है, जिसके लिए बड़ी-बड़ी साधनाएँ करनी पड़ती हैं। फिर भी मन को मारने की बात क्यों ? मन को साधना : एक रात की बात है। रात ज्यों-ज्यों गहरा रही थी, त्यों-त्यों नील गगन में तारे अधिक प्रभास्वर हो रहे थे, चमक रहे थे । शान्त नीरव निशा । श्रावस्ती का अनाथ - पिण्डक जेतवन आराम ! तथागत बुद्ध ध्यान-चिन्तन में लीन ! सघन अंधकार को चीरता हुआ एक प्रकाश-पुञ्ज-सा द्युतिमान देवता तथागत का अभिवादन करके चरणों में खड़ा हुआ । उसकी उज्ज्वल नील प्रभा से सारा जेतवन आलोकित हो उठा । भन्ते, आपने कहा- "मन ही सब विषयों की प्रसव-भूमि है, तृष्णा एवं क्लेश सर्वप्रथम मन में ही उत्पन्न होते हैं, तो क्या साधक, जहाँ-जहाँ से मन को हटा लेता है, वहाँ-वहाँ से दुःख-क्लेश भी हट जाता है ? क्या सभी जगह से मन को हटा लेने पर सब दुःख छूट जाते हैं ?" 9 अन्तर की सहज जिज्ञासा से स्फूर्त देवता की वचन -भंगिमा हवा में दूर तक तैरती चली गई । " आवस ! मन को सभी जगह से हटाने की आवश्यकता नहीं है । चित्त जहाँ-जहाँ पापमय होता है, वहाँ-वहाँ से ही उसे हटाकर अपने वश में करना चाहिए । यही दुःख मुक्ति का मार्ग है । " ३ तथागत ने मन का सही समाधान प्रस्तुत किया । घोड़े की लाश पर सवारी : आप कहते हैं---" मन चंचल है । इस चंचलता से नुकशान होता है, परेशानी होती है । इसलिए मन को मारना चाहिए ।" और फिर मारने के लिए नशे किए जाते हैं, मन को मूर्च्छित किया जाता है और उसके साथ कठोर से कठोर संघर्ष किया जाता है। मैं सोचता हूँ, यह कितना गलत चिन्तन है। घोड़ा किसी के पास है और वह बहुत चंचल हैं, हवा से बातें करता है। सवार चढ़ा, कि बस, लुढ़क गया और लगा घोड़े को कोसने, चाबुक मारने कि बड़ा चंचल है, बदमाश है, तो मतलब यह हुआ कि आपको कंबोजी घोड़ा नहीं चाहिए, प्रजापति का घोड़ा ( गधा ) चाहिए, जिसे कितना ही मारो, कितना ही पीटो, किंतु वह मन्द-मन्थर गति से घिसटता चलता है, गति नहीं पकड़ता । फिर तो आपको तेज घोड़ा नहीं, ठण्डा घोड़ा चाहिए, शीतला माता का घोड़ा चाहिए। घोड़े का अर्थ ही हैचंचल । ठण्डा घोड़ा तो घोड़ा नहीं, घोड़े की लाश होगी इसी प्रकार मन को मूर्छित करके उस पर सवार होना, मन पर नहीं, बल्कि मन की लाश पर सवार होना है । प्राय यह है कि घोड़े की शिकायत करने वाले को वास्तव में अपने आप से शिकायत होनी चाहिए कि उसे घोड़े पर चढ़ना नहीं आया। अभी वह सवार सधा नहीं है, उसे अपने को साधना चाहिए । यात्रा के लिए घोड़ा और सवार, दोनों सधे हुए होने चाहिएँ । सधा हुआ सवार सधे हुए घोड़े की तेज गति की कभी शिकायत नहीं करता, बल्कि वह तो उसका आनन्द ही लेता है । सधा हुआ सवार हवा से बातें करते चंचल घोड़े को इशारे पर नचाता है— जहाँ मोड़ना चाहे मोड़ लेता है और जहाँ रोकना चाहे रोक लेता है । आप भी अपने आप को, अपने मन को इस प्रकार साध लें कि मन को जहां मोड़ना चाहें, मोड़ लें और जहाँ १. यतो यतो मनो निवारये, न दुक्खमेति ततो- ततो । स सव्वतो मनो निवारये, स सम्वतो दुक्खा पमुच्चति ॥ २. न सव्वतो मनो निवारये, न मनो संयतत्तमागतं । यतो यतो च पापर्क, ततो- ततो मनो निवारये ॥ साधना का केन्द्र-बिन्दुः प्रन्तर्मन Jain Education International For Private & Personal Use Only -संयुक्त निकाय, १, १,२३-२४ ११ www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7