Book Title: Sadhna Ka Kendrabindu Antarman Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 1
________________ साधना का केन्द्र-बिन्दु : अन्तर्मन "मन को जीतना बड़ा कठिन है। मन पवन जैसा चंचल है।' वह दुष्ट घोड़े जैसा दुःसाहसिक है। बस, मन के इन स्वरूप बोधक वचनों को ले कर उत्तर-काल में एकान्त दृष्टि से कहा जाने लगा--"मन जैसा अन्य कोई शत्रु नहीं है, अतः मन को मारो, मारो और इतना मारो कि मार-मार कर चकनाचूर कर दो।" परन्तु, मैं कहता हूँ कि यह तो एक तरफ की बात हुई। दूसरी ओर भी देखना चाहिए। यदि दूसरी ओर देखें, तो मन जैसा कोई अन्य मित्र नहीं है। बाहर में, जो कुछ भी दृश्य जगत् है, परिवार है, समाज है, और राष्ट्र है, व्यापार, वैभव और ऐश्वर्य है, वह सब मन से ही पैदा हुआ है। मैं तो यहाँ तक मानता हूँ कि सृष्टि का निर्माता, यदि कोई ब्रह्मा है, तो वह मन ही है। और, वही सृष्टि का परिपालक विष्णु है और वही सृष्टि का संहर्ता महारुद्र है। तथागत बुद्ध ने ठीक ही कहा है--"सब धर्म, सब वृत्तियाँ, और सब संस्कार पहले मन में ही जन्म लेते हैं।" 3 मन सब में मुख्य है, मुख्य ही क्या, सब-कुछ यही है। अतः प्रतिकूल दिशा में गतिशील मन को अनुकूल दिशा में मोड़ लेना ही परमानन्द का द्वार पा लेना है। मन की माया: आचार्य शंकर, जो भारतीय चिन्तन-क्षितिज पर ज्योतिर्मय नक्षत्र की तरह आज भी चमक रहे हैं, उन्होंने कहा है--ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है--"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।" उक्त सूत्र को यदि मन के लिए कहा जाए, तो यह कहा जा सकता है--"मनः सत्यं जगद् माया।" मन ही सत्य है, यह जगत्, यह सृष्टि, उसी मन की माया है। इसलिए जगत् को मन की माया कह सकते है। इन्सान, जब माता के उदर से जन्म ले कर इस पृथ्वी पर प्राया, तो उसके पास क्या था? धन था ? अलंकार थे? वस्त्र-पात्र थे? मकान था? आज जो कुछ दीख रहा है उसके पास, इनमें से कुछ भी था? कुछ भी नहीं। जो था, वह केवल एक छोटा-सा शरीर । वह भी एक नंगा तन । इसके अतिरिक्त, और कुछ भी तो उसके पास नहीं था। फिर यह सब-कुछ कहाँ से पा गया? ये बड़े-बड़े भव्य भवन, ये कल-कारखाने, ये धरतीआकाश की परिक्रमा करने वाले विमान । ये सब कहाँ से आ गए? सभ्यता और संस्कृति का, जो विकास हुआ है, धर्म और दर्शन का, जो गंभीरतम चिन्तन हुअा है, अध्यात्म और विज्ञान का, जो गहनतम मनन हुआ है, वह सब कहाँ से जन्मा? मन की सृष्टि से ही तो! मनुष्य के मन ने मनन किया, चिन्तन किया और इस विशाल सृष्टि का निर्माण हो गया। इसलिए मैंने कहा--"मन ब्रह्म है । मन जैसा दूसरा कोई साथी नहीं, मित्र नहीं और परम शक्ति नहीं।" यह ठीक है, मन शत्रु भी है, और बहुत बड़ा भयंकर शत्रु है। जब वह गलत सोचना १. चंचल ही मनः कृष्ण ! ....वायोरिव सुदुष्करम् । २. मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावई । ३. मनो पुवंगमा धम्मा, मनोसेट्टा मनोमया। ---गीता, ६,३४ -उत्तराध्ययन, २३,५८ -धम्मपद, १,१ साधना का केन्द्र-बिन्दुः अन्तर्मन Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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