Book Title: Sadhan Jivan me Trigupti ka Mahattva Author(s): Ratanbai Choradiya Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 313 साधक - जीवन में त्रिगुप्ति का महत्त्व श्रीमती रतनबाई चोरडिया को श्रमण-श्रमणी की जीवन-चर्या में स्थान दिया गया है, किन्तु इसका अंशतः उपयोग भी श्रावक-श्राविका के जीवन को कंकर से शंकर बना सकता है। विदुषी लेखिका ने यह आलेख श्रमणाचार को लक्ष्य करके नहीं, अपितु गृहस्थों को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किया है। सम्पादक जैन धर्म में साधक-जीवन का बहुत महत्त्व है। साधकों के जीवन में सत्यवादिता, उदारता, सहिष्णुता, करुणा, कर्त्तव्यनिष्ठा आदि गुण कूट-कूट कर भरे होते हैं। साधक श्रावक का मन दर्पण के समान स्वच्छ, हृदय पवित्र व उदार होता है। दान-शील एवं सरल व्यवहार के कारण उसे सभी का प्रेम प्राप्त होता था। पापों से विरत रहने वाला, पक्षपात रहित, बड़ों का आदर करने वाला, किये हुए उपकार को मानने वाला, हिताहित मार्ग का ज्ञाता, दीर्घदर्शी जीवन श्रावक का होता है। श्रावक इन्द्रियों का गुलाम नहीं होता, उन्हें वश में रखता है। उसका सोचना, समझना, बोलना और करना सबकुछ विलक्षण होता है। वह संसार में रहता हुआ भी संसार से अलग रहता है। उसके अन्तर में शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा का अमृत सागर लहराता है। उसके हृदय में दया का झरना बहता है। सभी जीवों के प्रति उसके मन में कल्याण की भावना रहती है। मानव जीवन में तीन बड़ी शक्तियाँ हैं- मन-वचन व काय शक्ति । यदि हम इन तीनों शक्तियों का सदुपयोग करते हैं तो मानव से महामानव बन सकते हैं। हमारा यह मानव शरीर एक पवित्र मंदिर है, जिसमें जीव रूपी शिव विराजमान है । इस देह को देवालय व आत्मा को देवता कहा है। उस सोये हुए देवत्व को जगाने के लिये मन-वचन-काय की गुप्ति अति आवश्यक है। प्रश्न : - मनोगुप्ति से क्या होता है ? उत्तर: Jain Educationa International तसे अशुभ अध्यवसाय में जाते हुए मन को रोका जाता है। आर्त्तध्यान व रौद्रध्यान का त्याग व धर्मध्यान में मन स्थिर किया जाता है। समस्त कल्पनाओं से रहित होकर, समभावों से आत्मस्वरूप में रमण करना मनोगुप्ति से ही सम्भव है। हमारा मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। मन को अच्छी तरह से शिक्षित किया जाय तो वह हमारा सबसे अच्छा मित्र है व हितैषी है। उसके विपरीत अशिक्षित मन सबसे बड़ा शत्रु है। मन यदि इन्द्रिय सुखों में भटकता है, क्रोध-मान-माया व लोभ की भट्टी में जलता है तो शत्रु है। यही मन यदि जप-तप-त्याग-संयम का पालनकर आत्मभावों में रमण करता है, अन्तरात्मा व परमात्मा में लीन रहता है तो अनन्त - अनन्त जन्मों के For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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