Book Title: Sadguru evam Unke Saniddhya ka Labh Author(s): Pavankumar Jain Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 5
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 161 निस्पृहता, मितभाषिता, गुणवानों के प्रति प्रमोद - भावना, प्राणिमात्र के प्रति करुणा आदि अनेक गुण सद्गुरु की साधना में चार-चांद लगा देते हैं। आत्म जागृति के साथ विषय- कषायों, मान-प्रतिष्ठा की चाहना आदि जो साधना के दुर्गुण हैं, उनसे सद्गुरु कोसों दूर रहते हैं। 'भारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्ते' के अनुसार साधुचर्या के पालन में वे सदैव जागृत रहते हैं और 'आयटुं सम्मं समणुवासेज्जासि' अर्थात् अपने आत्महित के लिए सम्यक् प्रकार से प्रयत्नशील बने रहते हैं । ( 4 ) निस्पृहता - उत्तराध्ययन सूत्र का अग्रांकित वाक्य सद्गुरु के ऊपर पूर्ण रूप से चरितार्थ होता है - 'निम्ममो निरंहकारो, निस्संगो चत्तगारवो' अर्थात् सद्गुरु ममत्व और अंहकार रहित तो हैं ही, साथ ही निस्संग और गारव के परित्यागी हैं। वे सदैव लोकैषणा से दूर रहते हैं । सांसारिक डिग्री या मेरे नाम के आगे कोई पदवी लगे, लोग मेरी जयकार करें इत्यादि दुर्गुण उनके जीवन में नहीं होते हैं। उनकी भावना होती है कि साधुता की पदवी रहते हुए आराधकपने में आयुष्य का बंध हो जाये तो मुक्ति फिर ज्यादा दूर नहीं, क्योंकि जब साधु की पदवी प्राप्त करली तो बाकी सारी पदवियाँ बेकार हैं। अतः कहा भी है अकिंचन अनगार होता, माया मद नहीं चाहिए । साधु का पद पा लिया तो और क्या पद चाहिए ? साधु की पदवी है मोटी, साधुता छोटी न जान ॥ अतः जो आनन्द की अनुभूति निस्पृहता से होती है वह लोकैषणा की पूर्ति में नहीं है। अतः वे सदैव एक सच्चे साधक की भांति साधुता की सुरक्षा में तत्पर रहते हैं। मेरा नाम संसार में अमर रहे, लोग मुझे वर्षों तक याद रखे, इसलिए नाम के लिए संयम को दूषित कर लोगों को राजी कर देना ऐसी प्रवृत्तियाँ उनके जीवन से कोसों दूर हैं, क्योंकि वे मानते हैं नाम जब तीर्थंकरों के भी अमर ना रह सके। मेरा नाम अमर रहेगा, क्या कोई यह कह सका । नामवारी की चाहना को दिल से अपने दे निकाल | (5) सहनशीलता - सद्गुरु विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना सदा शांत और प्रसन्न रहकर करते हैं। ये कष्टसहिष्णु होते हैं । स्वेच्छा से अनुकूलता का त्याग और प्रतिकूलता को समभाव से सहन करना उनकी अनूठी विशेषता होती है। वे उपसर्ग और परीषहों को अपनी साधना की कसौटी मानते हैं एवं सदैव इस पर खरा उतरने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। क्योंकि सद्गुरु 'देहदुक्खं महाफलं' को सदैव ध्यान में रखते हैं । वे उपसर्ग परीषह को समभाव से सहन कर इन्हें कर्मों के कर्जे को उतारने का सुन्दर मौका मानते हैं। (6) गुणग्राहकता - सद्गुरु के पास कोई भी व्यक्ति आता है चाहे वह बालक हो, जवान हो या वृद्ध, धनवान हो या गरीब, प्रमुख हो या सामान्य, सभी के साथ, हमेशा आत्मीयता का व्यवहार करते हैं । वे कभी भी किसी की उपेक्षा नहीं करते हैं। इतना ही नहीं आने वाले व्यक्ति के सामान्य गुणों का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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