Book Title: Sadguru evam Unke Saniddhya ka Labh
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 157 सद्गुरु एवं उनके सानिध्य का लाभ श्री पवनकुमार जैन सद्गुरु की आगमिक एवं व्यावहारिक विशेषताओं के निरूपण के साथ प्रस्तुत आलेख में लेखक ने उन बिन्दुओं को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया है, जिनसे कोई यह सीख सके कि उसे सद्गुरु के सान्निध्य का लाभ किस प्रकार लेना है। -सम्पादक भारतीय परम्परा में गुरु का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संसार में ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो गुरु या मार्गदर्शक के बिना सहज रूप से पूर्ण हो जाए। गुरु भारतीय संस्कृति का केन्द्र बिन्दु है। जैसे तराजू के दोनों पलड़े डण्डी से बंधे होते हैं और डण्डी के बीच मुठिया होती है वह केन्द्र का कार्य करती है, उसी प्रकार 'गुरु' हमारी संस्कृति के मुख्य तीन तत्त्वों- देव, गुरु और धर्म के मध्य में रहकर केन्द्र का कार्य करता है। गुरु से ही देव और धर्म का स्वरूप जाना जा सकता है। यदि सच्चे गुरु केन्द्र में न हों तो फिर जीव देव और धर्म के सच्चे स्वरूप को जानने से वंचित रह जाता है। संसार में या व्यावहारिक जीवन में सफलता अर्जित करनी है तो मात्र पुस्तकें पढ़ने से सफलता नहीं मिलती। इसके लिए जो व्यक्ति उस कार्य को सफल कर चुका है उसकी सलाह या मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु का अर्थ- गुरु शब्द में 'गु' अंधकार का द्योतक है और 'रु' प्रकाश का। अतः जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए, वह गुरु है इसी प्रकार जो तत्त्व ज्ञान को प्रकट कर शिव (मोक्ष) के साथ अभिन्न सम्बन्ध करा देता है, वह गुरु है। कल्याण (योगांक) पृष्ठ 545 पर भी बताया है गृणाति उपदिशति धमिति गुरुः। गिरति ज्ञानमिति गुरुः। यहा गीर्यते स्तूयते देवगन्धर्वादिभिरिति गुरुः। ___ अर्थात् जो धर्म का उपदेश दे, अज्ञानरूपी तम का विनाश कर ज्ञान रूपी ज्योति से जो प्रकाश करे, देव गन्धर्वादि से जो स्तुत्य हो, उन्हीं साक्षात् देव की संज्ञा 'गुरु' है। जैन आगमों में गुरु के लिए आचार्य, बुद्ध, धर्माचार्य, उपाध्याय आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। अभयदेवसूरि ने भगवतीसूत्र की वृत्ति में लिखा है- 'आ मादया तविषयविनयरूपया चर्यन्ते सेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकांक्षिमिरित्याचार्याः।' अर्थात् जो जिनेन्द्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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