Book Title: Sadguru evam Unke Saniddhya ka Labh
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 12
________________ जिनवाणी णासीले ण विसीले, ण सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वुच्चइ ||5|| भावार्थ - आठ स्थानों से यह आत्मा शिक्षाशील (शिक्षा के योग्य) कहा जाता है, अधिक नहीं हंसने वाला, इन्द्रियों का दमन करने वाला और मर्म वचन न कहने वाला, सर्वतः चारित्र की विराधना न करने वाला (चारित्र धर्म का पालन करने वाला सदाचारी), देशतः भी चारित्र की विराधना नहीं करने वाला अर्थात् व्रतों का निरतिचार पालन करने वाला और जो अतिशय लोलुप नहीं है तथा जो क्रोध-रहित और सत्यानुरागी (सत्यनिष्ठ) है, वह शिक्षाशील कहा जाता है। क्या हममें ये गुण हैं? यदि हममें ये गुण नहीं हैं तो हमें प्रयास करना चाहिए कि इन गुणों का हममें सद्भाव हो जिससे हम सच्चे शिष्यत्व को प्राप्त कर सकें। जब तक हम में सच्चा शिष्यत्व नहीं होगा तब तक हममें पूर्णतया नम्रता नहीं आ सकती है और नम्रता के अभाव में जिज्ञासाओं का उचित समाधान नहीं होता है। 168 गुरु महाराज हमारी गलतियों के लिए कभी हमें उपालम्भ दें और हममें नम्रता भाव नहीं है तो शायद हमारे विचार ऊँचें-नीचे हो सकते हैं, लेकिन जो नम्र होगा उसके विचार ऊँचे-नीचे नहीं होंगे। भगवान् ने उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन एक में भी कहा है 10 जनवरी 2011 अणुसासिओ ण कुप्पिज्जा, खंतिं सेविज्ज पंडिए । खुड्डेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वज्जए ॥ ॥ भावार्थ - यदि कभी गुरु महाराज कठोर वचनों से शिक्षा दें, तो भी बुद्धिमान् विनीत शिष्य को क्रोध नहीं करना चाहिए, किन्तु क्षमा सहनशीलता धारण करनी चाहिए। दुःशील क्षुद्र व्यक्तियों के अर्थात् द्रव्य बाल और भाव बाल व्यक्तियों के साथ संसर्ग-परिचय नहीं करना चाहिए और हास्य तथा क्रीड़ा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। अतः जब भी संत चरणों में जाने का सुयोग प्राप्त हो तब शिष्यत्व भाव के साथ ही श्री चरणों में जाना चाहिए। जिसमें शिष्यत्व होगा उसमें लघुता होगी और लघुता से ही प्रभुता मिलेगी कहा भी है - लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर। कीड़ी सो मिसरी चुगै, हाथी के सिर धूर ॥ यदि हमें मुक्ति को प्राप्त करना है तो जीवन में लघुता लानी ही होगी। जिस शिष्य में लघुता, नम्रता है उस शिष्य पर गुरु पूरी कृपा करता है, क्योंकि विनयी शिष्य के लिए भगवान् ने उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन एक में गुरु को आदेश दिया है Jain Educationa International एवं विणयजुत्तस्स, सुर्य अत्थं च तदुभयं । पुच्छ्माणस्स सीसस्स, वागरिज्ज जहासुयं ॥ 23 ॥ भावार्थ- गुरु महाराज को चाहिए कि इस प्रकार विनय से युक्त शिष्य के पूछने पर सूत्र, अर्थ और सूत्र For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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