Book Title: Sadachar ke Shashwat Mandand aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 3
________________ २५२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ चाहते हैं और जिस रूप में वह हमारे व्यवहार में और सामुदायिक जिसे भगवान् महावीर ने अमान्य कर दिया था। क्या हम उस व्यक्ति जीवन में प्रकट होता है। को, जो डाके डालकर उस सम्पत्ति को गरीबों में वितरित कर देता जहाँ तक व्यक्ति के चैतसिक या आन्तरिक समत्व का प्रश्न है है, सदाचारी मान सकेंगे? एक चोर और एक सन्त दोनों ही व्यक्ति हम उसे वीतराग मनोदशा या अनासक्त चित्तवृत्ति की साधना मान सकते को सम्पत्ति के पाश से मुक्त करते हैं फिर भी दोनों समान-कोटि के हैं। फिर भी समत्व की यह साधना का हमारे वैयक्तिक एवं आन्तरिक नहीं माने जाते। वस्तुत: सदाचार या दुराचार का निर्णय केवल एक जीवन से अधिक सम्बन्धित है। वह व्यक्ति की मनोदशा की परिचायक ही आधार पर नहीं होता है। उसमें आचरण का प्रेरक आन्तरिक पक्ष है। यह ठीक है कि व्यक्ति की मनोदशा का प्रभाव उसके आचरण अर्थात् कर्ता की मनोदशा और आचरण का बाह्य-परिणाम अर्थात् पर भी होता है और हम व्यक्ति के आचरण का मूल्याङ्कन करते समय उसके ___ सामाजिक जीवन पर उसका प्रभाव दोनों ही विचारणीय हैं। आचार इस आन्तरिक पक्ष पर विचार भी करते हैं किन्तु सदाचार या दुराचार की शुभाशुभता विचार पर और विचार या मनोभावों की शुभारमता का यह प्रश्न हमारे व्यवहार के बाह्य पक्ष एवं सामुदायिकता के साथ स्वयं व्यवहार पर निर्भर करती है। सदाचार या दुराचार का मानदण्ड अधिक जुड़ा हुआ है। जब भी हम सदाचार एवं दुराचार के किसी तो ऐसा होना चाहिए जो इन दोनों को समाविष्ट कर सके। मानदण्ड की बात करते हैं तो हमारी दृष्टि व्यक्ति के आचरण के बाह्य-पक्ष साधारणतया जैनधर्म सदाचार का शाश्वत मानदण्ड अहिंसा को पर अथवा उस आचरण का दूसरों पर क्या प्रभाव या परिणाम होता स्वीकार करता है, किन्तु यहाँ हमें यह विचार करना होगा कि क्या है, इस बात पर अधिक होती है। सदाचार या दुराचार का प्रश्न केवल केवल किसी को दुःख या पीड़ा नहीं देना या किसी की हत्या नहीं कर्ता के आन्तरिक-मनोभावों या वैयक्तिक-जीवन से तो सम्बन्धित नहीं करना, मात्र यही अहिंसा है। यदि अहिंसा की मात्र इतनी ही व्याख्या है, वह आचरण के बाह्य प्रारूप तथा हमारे सामाजिक जीवन में उस है, तो फिर वह सदाचार और दुराचार का मानदण्ड नहीं बन सकती, आचरण के परिणामों पर भी विचार करता है। यहाँ हमें सदाचार और यद्यपि जैन आचार्यों ने सदैव उसे सदाचार का एकमात्र आधार प्रस्तुत दुराचार की व्याख्या के लिए कोई ऐसी कसौटी खोजनी होगी जो किया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि अनृतवचन, स्तेय, मैथुन, आचार के बाह्य पक्ष अथवा हमारे व्यवहार के सामाजिक पक्ष को भी परिग्रह आदि पापों के जो भिन्न-भिन्न नाम दिये गये हैं वे तो केवल अपने में समेट सके। सामान्यतया भारतीय चिन्तन में इस सम्बन्ध शिष्य-बोध के लिए हैं, मूलत: तो वे सब हिंसा ही हैं (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय)। में एक सर्वमान्य दृष्टिकोण यह है कि परोपकार ही पुण्य है और पर-पीड़ा वस्तुत: जैन आचार्यों ने अहिंसा को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचारा ही पाप है। तुलसीदास ने इसे निम्न शब्दों में प्रकट किया है- है। वह आन्तरिक भी है और बाह्य भी। उसका सम्बन्ध व्यक्ति से "परहित सरिस धरम नहीं भाई। पर-पीड़ा सम नहीं अधमाई।" भी है और समाज से भी। हिंसा को जैन-परम्परा में स्व की हिंसा ___अर्थात् वह आचरण जो दूसरों के लिए कल्याणकारी या हितकारी और पर की हिंसा, ऐसे दो भागों में बाँटा गया है। जब वह हमारे है सदाचार है, पुण्य है और जो दूसरों के लिए अकल्याणकारी है, स्व-स्वरूप या स्वभाव दशा का घात करती है तो स्व-हिंसा है और अहितकर है, पाप है, दुराचार है। जैनधर्म में सदाचार के एक ऐसे जब दूसरों के हितों को चोट पहुँचाती है, तो वह पर की हिंसा है। ही शाश्वत मानदण्ड की चर्चा हमें आचाराङ्ग-सूत्र में उपलब्ध होती है। स्व की हिंसा के रूप में वह आन्तरिक पाप है, तो पर की हिंसा वहाँ कहा गया है- “भूतकाल में जितने अर्हत हो गये हैं, वर्तमान काल के रूप में वह सामाजिक पाप। किन्तु उसके ये दोनों रूप दुराचार में जितने अर्हत हैं और भविष्य में जितने अर्हत होंगे वे सभी यह की कोटि में आते हैं। अपने इस व्यापक अर्थ में हिंसा को दराचार उपदेश करते हैं कि सभी प्राणी, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्वों की और अहिंसा को सदाचार की कसौटी माना जा सकता है। को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है।" सदाचार के शाश्वत मानदण्ड की समस्या किन्तु मात्र दूसरे की हिंसा नहीं करने के रूप में अहिंसा के निषेधात्मक यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या सदाचार का कोई शाश्वत पक्ष को या दूसरों के हित-साधन को ही सदाचार की कसौटी नहीं माना मानदण्ड हो सकता है। वस्तुतः सदाचार और दुराचार के मानदण्ड जा सकता है। ऐसी अवस्थाएँ तब सम्भव हैं जबकि मेरे असत्य सम्भाषण । का निश्चय कर लेना इतना सहज नहीं है। यह सम्भव है कि जो आचरण एवं अनैतिक आचरण के द्वारा दूसरों का हित-साधन होता हो, अथवा किसी परिस्थिति-विशेष से सदाचार कहा जाता है, वही दूसरी परिस्थिति कम से कम किसी का अहित न होता हो, किन्तु क्या हम ऐसे आचरण में दुराचार बन जाता है। और जो सामान्यतया दुराचार कहे जाते हैं को सदाचार कहने का साहस कर सकेंगे? क्या वेश्यावृत्ति के माध्यम वे किसी परिस्थिति विशेष में सदाचार हो जाते हैं। शीलरक्षा हेतु की से अपार धनराशि एकत्र कर उसे लोकहित के लिए व्यय करने मात्र जाने वाली आत्महत्या सदाचार की कोटि में आ जाती है जबकि सामान्य से कोई स्त्री सदाचारिणी की कोटि में आ सकेगी? क्या यौन-वासना स्थिति में वह अनैतिक (दुराचार) मानी जाती है। जैन आचार्यों का की संतुष्टि के वे रूप जिसमें किसी भी दूसरे प्राणी की प्रकट में हिंसा तो यह स्पष्ट उद्घोष है- "जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा नहीं होती है, दुराचार की कोटि में नहीं आवेंगे? सूत्रकृताङ्ग में सदाचारिता ते आसवा", अर्थात् आचार के जो प्रारूप सामान्यतया बन्धन के का एक ऐसा ही दावा अन्य तैर्थिकों द्वारा प्रस्तुत भी किया गया था, कारण हैं, वे ही परिस्थिति विशेष में मुक्ति के साधन बन जाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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