Book Title: Sadachar ke Shashwat Mandand aur Jain Dharm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ २५० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ का अर्थ होगा- उन मूल्यों की संस्थापना, जो विवेकशीलता भौतिक सुख-सुविधाओं का यह अम्बार आज भी उसके मानस को की आँखों में मानवीय गुणों के विकास और मानवीय कल्याण के सन्तुष्ट नहीं कर पा रहा है। आज शीघ्रगामी आवागमन के साधनों लिए सहायक हों, जिनके द्वारा मनुष्य की मनुष्यता जीवित रह सके। से विश्व की दूरी कम हो गई है किन्तु हृदय की दूरी तो बढ़ रही आज मनुष्य चाहे भौतिक दृष्टि से प्रगति की राह पर अग्रसर हो, किन्तु है। सुरक्षा के साधनों की यह बहुलता आज भी मानव मन में अभय नैतिक दृष्टि से भी वह प्रगति कर रहा है यह कहना कठिन ही है। का विकास नहीं कर सकी है। आज भी मनुष्य उतना ही आशंकित, एक उर्दू शायर ने कहा है - आतंकित, आक्रामक और स्वार्थी है जितना आदिम युग में रहा होगा। तालीम का शोर इतना, तहजीब का गुल इतना, मात्र इतना ही नहीं, आज तो जीवन की सहजता और स्वाभाविकता फिर भी तरक्की न है, नीयत की खराबी है। भी उससे छिन गई है। आज जीवन में छद्मों का बाहुल्य है। भीतर बौद्धिक-विकास से प्राप्त विशाल ज्ञानराशि, वैज्ञानिक तकनीक वासना की उद्दाम ज्वालायें और बाहर सच्चरित्रता और सदाशयता का से प्राप्त भौतिक सुख-सुविधा एवं आर्थिक-समृद्धि मनुष्य की ढोंग; यही आज के मानव की त्रासदी है। इसे प्रगति कहें या प्रतिगति? आध्यात्मिक, मानसिक एवं सामाजिक विपन्नता को दूर नहीं कर पाई आज हमें यह निश्चित करना है कि हमारे मूल्य-परिवर्तन की दिशा है। ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने वाले सहस्राधिक विश्वविद्यालयों के क्या हो? हमें मनुष्य को दोहरे जीवन की त्रासदी से बचाना है, किन्तु होते हुए भी आज का शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और यह ध्यान भी रखना होगा कि कहीं इस बहाने हम उसे पशुत्व की भोग-लोलुपता पर विवेक और संयम का अंकुश नहीं लगा पाया है। ओर तो नहीं ढकेल रहे हैं। सन्दर्भ : १. Lectures in the youth League -- उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ३४४-३४५। Ethical Studies -- p. 223. ३. देखिए-विषय और आत्म (यशदेव शल्य), पृ० ८८-८९। ४. मनुस्मृति, १/८५। ५. अष्टकप्रकरण (हरिभद्र) २७/५ की टीका में उद्धृत। महाभारत, शान्तिपर्व, ३६/११। ७. आचाराङ्ग, १/४/२/१३०। Contemporary Ethical Theories, p. 163. ९. देखिये-नीति-सापेक्ष और निरपेक्ष तत्त्व- डॉ० सागरमल जैन दार्शनिक, अप्रैल १९७६ । १०. महाभारत, आदिपर्व, १२२/४-५ । सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म सदाचार और दुराचार का अर्थ चोरी या हिंसा क्यों दुराचार है और ईमानदारी या सत्यवादिता क्यों जब हम सदाचार के किसी शाश्वत मानदण्ड को जानना चाहते सदाचार है? यदि हम सत् या उचित के अंग्रेजी पर्याय (Right) पर हैं, तो सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि सदाचार का तात्पर्य विचार करते हैं तो यह शब्द लैटिन शब्द (Rectus) से बना है, जिसका क्या है और किसे हम सदाचार कहते हैं ? शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि अर्थ होता है नियमानुसार, अर्थात् जो आचरण नियमानुसार है, वह से सदाचार शब्द सत् और आचार, इन दो शब्दों से मिलकर बना सदाचार है और जो नियमविरुद्ध है, वह दुराचार है। यहाँ नियम से है, अर्थात् जो आचरण सत् या उचित है वह सदाचार है। फिर भी तात्पर्य सामाजिक एवं धार्मिक नियमों या परम्पराओं से है। भारतीययह प्रश्न बना रहता है कि सत् या उचित आचरण क्या है? यद्यपि परम्परा में भी सदाचार शब्द की ऐसी ही व्याख्या मनुस्मृति में उपलब्ध हम आचरण के कुछ प्रारूपों को सदाचार और कुछ प्रारूपों को दुराचार होती है, मनु लिखते हैंकहते हैं किन्तु मूल प्रश्न यह है कि वह कौन-सा तत्त्व है जो किसी तस्मिन्देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागतः । आचरण को सदाचार या दुराचार बना देता है। हम अक्सर यह कहते वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।। २/१८। हैं कि झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना, व्यभिचार करना आदि अर्थात् जिस देश, काल और समाज में जो आचरण परम्परा दुराचार है और करुणा, दया, सहानुभूति, ईमानदारी, सत्यवादिता आदि से चला आता है वही सदाचार कहा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ सदाचार हैं, किन्तु वह आधार कौन-सा है जो प्रथम प्रकार के आचरणों कि जो परम्परागत आचार के नियम हैं, उनका पालन करना ही सदाचार को दुराचार और दूसरे प्रकार के आचरणों को सदाचार बना देता है? है। दूसरे शब्दों में जिस देश, काल और समाज में आचरण की जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9