Book Title: Sadachar ke Shashwat Mandand aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 7
________________ २५६ की आलोचना को, अविहित एवं अवैधानिक माना जा सकता है, किन्तु इससे नग्न रहना या शासक वर्ग के गलत कार्यों की आलोचना करना अनैतिक मान लेने मात्र से वह असदाचार की कोटि में नहीं आ जाता। गर्भपात वैधानिक हो सकता है लेकिन नैतिक कभी नहीं । नैतिक मूल्यवत्ता निष्पक्ष विवेक के प्रकाश में आलोकित होती है वह सामाजिक विहितता या वैधानिकता से भिन्न है । समाज किसी कर्म को विहित या अविहित बना सकता है, किन्तु उचित या अनुचित नहीं । यद्यपि सदाचार के मानदण्डों में परिवर्तन होता है किन्तु उनकी परिवर्तनशीलता फैशनों की परिवर्तनशीलता के समान भी नहीं है, क्योंकि नैतिक मूल्य या सदाचार के मानदण्ड मात्र रुचि सापेक्ष न होकर स्वयं रुथियों के सृजक भी हैं। अतः जिस प्रकार रुचियाँ या तज्जानित फैशन बदलते हैं वैसे ही सदाचार के मानदण्ड नहीं बदलते हैं। यह सही है कि उनमें देश, काल एवं परिस्थितियों के आधार पर कुछ परिवर्तन होता है किन्तु फिर भी उनमें एक स्थायी तत्त्व होता है। अहिंसा, न्याय, आत्म-त्याग, संयम आदि अनेक नैतिक मूल्य या सदाचार के प्रत्यय ऐसे है, जिनकी मूल्यवत्ता सभी देशों एवं कालों में समान रूप से स्वीकृत रही है। यद्यपि इनमें अपवाद माने गये हैं, किन्तु अपवाद की स्वीकृति इनकी मूल्यवत्ता का निषेध नहीं होकर, वैयक्तिक असमर्थता अथवा परिस्थिति विशेष में उनकी सिद्धि की विवशता की ही सूचक है। अपवाद, अपवाद है, वह मूल-नियम का निषेध नहीं है। जैन दर्शन उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद मार्ग का विधान करता है उसमें उत्सर्ग मार्ग को शाश्वत और अपवाद मार्ग को परिवर्तनशील माना गया है। इस प्रकार कुछ नैतिक मूल्य या सदाचार की धारणाएँ अवश्य ही ऐसी हैं जो सार्वभौम और अपरिवर्तनीय हैं। प्रथमतः सदाचार की धारणाओं में बहुत ही कम परिवर्तन होता है और यदि होता भी है तो कहीं अधिक स्वामित्व लिए हुए होता है। फैशन एक दशाब्दी से दूसरी दशाब्दी में ही नहीं, अपितु दिन-प्रतिदिन बदलते रहते हैं, किन्तु नैतिक मूल्य या सदाचार सम्बन्धी धारणाएँ इस प्रकार नहीं बदलती हैं। ग्रीक नैतिक मूल्यों का ईसाइयत के द्वारा तथा भारतीय वैदिक युग के मूल्यों का औपनिषदिक एवं जैन-बौद्ध संस्कृतियों के द्वारा आंशिक रूप से मूल्यान्तरण अवश्य हुआ है किन्तु श्रमण संस्कृति तथा जैनधर्म के द्वारा स्वीकृत मूल्यों का इन दो हजार वर्षों में भी मूल्यान्तरण नहीं हो सका है। इन्होंने सदाचार या दुराचार के जो मानदण्ड स्थिर किये थे वे आज भी स्वीकृत हैं । आज आमूल परिवर्तन के नाम पर उनके उखाड़ फेंकने की जो बात कही जा रही है, वह भ्रान्तिजनक ही है मूल्य-विश्व में आमूल परिवर्तन या निरपेक्ष परिवर्तन सम्भव ही नहीं होता है। नैतिक मूल्यों या सदाचार की धारणाओं के सन्दर्भ में जिस प्रकार का परिवर्तन होता है वह एक सापेक्ष और सीमित प्रकार का परिवर्तन है। इसमें दो प्रकार के परिवर्तन परिलक्षित होते हैं— परिवर्तन का एक रूप वह होता है, जिसमें कोई नैतिक मूल्य विवेक के विकास के साथ व्यापक अर्थ ग्रहण करता जाता है तथा उसके पुराने अर्थ अनैतिक और नये अर्थ नैतिक माने जाने लगते हैं, जैसा कि अहिंसा और परार्थ के प्रत्ययों के साथ हुआ है। एक समय में जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ Jain Education International इन प्रत्ययों का अर्थ विस्तार परिजनों, स्वजातियों एवं स्वधर्मियों तक सीमित था। आज वह राष्ट्रीयता या स्वराष्ट्र तक विकसित होता हुआ सम्पूर्ण मानव जाति एवं प्राणी जगत् तक अपना विस्तार पा रहा है। आत्मीय-परिजनों, जाति-बन्धुओं एवं सधर्मी बन्धुओं का हित साधन करना किसी युग में नैतिक माना जाता था किन्तु आज हम उसे भाई-भतीजावाद, जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद कहकर अनैतिक मानते हैं आज राष्ट्रीय हित साधन नैतिक माना जाता है, किन्तु आने वाले कल में यह भी अनैतिक माना जा सकता है। यही बात अहिंसा के प्रत्यय के साथ भी घटित हुई है, आदिम कबीलों में परिजनों की हिंसा ही हिंसा मानी जाती थी, आगे चलकर मनुष्य की हिंसा को हिंसा माना जाने लगा, वैदिक धर्म एवं यहूदी धर्म ही नहीं, ईसाई धर्म भी, अहिंसा के प्रत्यय को मानव जाति से अधिक अर्थ विस्तार नहीं दे पाया, किन्तु वैष्णव परम्परा में अहिंसा का प्रत्यय प्राणी जगत् तक और जैन परम्परा में वनस्पति जगत् तक अपना अर्थ विस्तार पा गया। इस प्रकार नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का एक अर्थ उनके अर्थों को विस्तार या संकोच देना भी है। इसमें मूलभूत प्रत्यय की मूल्यवत्ता बनी रहती है, केवल उसके अर्थ विस्तार या संकोच ग्रहण करते जाते हैं। नरबलि पशुबलि या विधर्मी की हत्या हिंसा है या नहीं है? इस प्रश्न के उत्तर लोगों के विचारों की भित्रता से भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किन्तु इससे न्याय की मूल्यवता समाप्त नहीं होती है। यौन-नैतिकता के सन्दर्भ में भी इसी प्रकार का अर्थ विस्तार या अर्थ संकोच हुआ है। इसकी एक अति यह रही है कि एक ओर पर पुरुष का दर्शन भी पाप माना गया तो दूसरी ओर स्वच्छन्द यौन-सम्बन्धों को भी विहित माना गया किन्तु इन दोनों अतियों के बावजूद पति-पत्नी सम्बन्ध में प्रेम, निष्ठा एवं त्याग के तत्त्वों की अनिवार्यता सर्वमान्य रही तथा संयम एवं ब्रह्मचर्य की मूल्यवत्ता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया गया । नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का एक रूप वह होता है, जिसमें किसी मूल्य की मूल्यवता को अस्वीकार नहीं किया जाता, किन्तु उनका पदक्रम बदलता रहता है अर्थात् मूल्यों का निर्मूल्यीकरण नहीं होता अपितु उनका स्थान संक्रमण होता है। किसी युग में जो नैतिक गुण प्रमुख माने जाते रहे हों, वे दूसरे युग में गौण हो सकते हैं और जो मूल्य गौण थे, वे प्रमुख हो सकते हैं। उच्च मूल्य निम्न स्थान पर तथा निम्न मूल्य उच्च स्थान पर या साध्य मूल्य साधन स्थान पर तथा साधन मूल्य साध्य स्थान पर आ जा सकते हैं। कभी न्याय' का मूल्य प्रमुख और अहिंसा का मूल्य गौण था— न्याय की स्थापना के लिए हिंसा को विहित माना जाता था किन्तु जब अहिंसा का प्रत्यय प्रमुख बन गया तो अन्याय को सहन करना भी विहित माना जाने लगा। ग्रीक मूल्यों के स्थान पर ईसाईयत के मूल्यों की स्थापना में ऐसा ही परिवर्तन हुआ है आज साम्यवादी दर्शन सामाजिक न्याय के हेतु खूनी क्रान्ति की उपादेयता की स्वीकृति के द्वारा पुनः अहिंसा के स्थान पर न्याय को ही प्रमुख मूल्य के पद पर स्थापित करना चाहता है। किन्तु इसका अर्थ यह कभी नहीं है कि ग्रीक सभ्यता में या साम्यवादी दर्शन में अहिंसा पूर्णतया निर्मूल्य है या ईसाईयत में - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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