Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigama Sutra me Pratyaksha Praman Author(s): Shreeprakash Pandey Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 4
________________ २५४ सभाध्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र.... Nirgrantha निर्विकल्पक ज्ञान में सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति है अतः वह प्रवर्तक है और प्रवर्तक होने से प्रमाण है, तो प्रश्न उठता है कि जो स्वयं निर्विकल्पक है वह विकल्प को कैसे उत्पन्न कर सकता है; क्योंकि निर्विकल्पक होने और विकल्प उत्पन्न करने की सामर्थ्य का परस्पर विरोध है। 1 यदि कहा जाये कि विकल्प वासना की अपेक्षा लेकर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष विकल्पक को उत्पन्न कर सकता है तो विकल्पवासना सापेक्ष अर्थ ही विकल्प को उत्पन्न कर देगा, दोनों के बीच में एक निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की आवश्यकता ही क्या है और यदि निर्विकल्पक, विकल्प को उत्पन्न नहीं करता तो बौद्धों का यह कथन कि “यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता" अर्थात् 'जिस विषय में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सविकल्पक बुद्धि को उत्पन्न कर सकता है, उसी विषय में वह प्रमाण है' उनकी ही मान्यता के विरोध में आता है । फिर भी यदि सविकल्पक बुद्धि को उत्पन्न करने पर ही निर्विकल्पक का प्रामाण्य अभीष्ट है तो सविकल्पक को ही बौद्ध प्रमाण क्यों नहीं मान लेते क्योंकि वह अविसंवादक है, अर्थ की प्राप्ति में साधकतम है और अनिश्चित अर्थ का निश्चयात्मक भी है । अतः निर्विकल्पक ज्ञान को भी सन्निकर्ष की तरह प्रमाण नहीं माना जा सकता५ । उसी प्रकार मीमांसकों के ज्ञातृव्यापार को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता । क्योंकि ज्ञातृव्यापार की सत्ता प्रत्यक्ष, अनुमानादि किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती । फिर भी यदि ज्ञातृव्यापार का अस्तित्व मानें तो प्रश्न उठता है कि वह कारकों से जन्य है या अजन्य । अजन्य तो हो नहीं सकता क्योंकि वह एक व्यापार है । व्यापार तो कारकों से ही जन्य हुआ करता है । यदि जन्य है तो, वह भावरूप है या अभावरूप । अभावरूप हो नहीं सकता क्योंकि यदि अभावरूप ज्ञातव्यापार से भी पदार्थों का बोध हो जाता है तो उसके लिये कारकों की खोज करना ही व्यर्थ है । पुन: ज्ञातृरूप व्यापार, ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप । यदि वह ज्ञानरूप है तो अत्यन्त परोक्ष नहीं हो सकता जैसा कि मीमांसक मानते हैं और यदि ज्ञातृरूप व्यापार अज्ञानरूप है, तो वह घट-पट की तरह प्रमाण नहीं हो सकता। उपरोक्त सभी समस्याओं के समाधान हेतु जैन दार्शनिक ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं । 'प्रमीयतेऽस्तैिरिति प्रमाणानि' अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों को भली प्रकार से जाना जाय, वह प्रमाण है । इस व्युत्पत्ति के आधार पर आचार्य उमास्वाति ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहा है । उन्होंने मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पाँच ज्ञानों को सम्यक् ज्ञान कहकर उन्हें स्पष्टतया प्रमाण प्रतिपादित किया है । उमास्वाति के परवर्ती आचार्य समन्तभद्र (ई. सन् ५७५-६२५) ने अपने प्रमाण की परिभाषा में उमास्वाति का ही आधार ग्रहण करते हुए तत्त्वज्ञान को प्रमाण माना है । प्रमाण को उन्होंने दो भागों में विभक्त किया है - (१) युगपत्सर्वभासी (२) क्रमभासी जो स्यावाद नय से सुसंस्कृत होता है । यदि ध्यान दिया जाये तो उमास्वाति और समन्तभद्र के प्रमाण लक्षणों में शब्दभेद को छोड़कर कोई मौलिक अर्थभेद प्रतीत नहीं होता क्योंकि सम्यक्त्व और तत्त्व का एक ही अर्थ है - सत्य-यथार्थ । आचार्य समन्तभद्र ने तत्त्वज्ञान को अन्यत्र 'स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुविबुद्धि लक्षणम्" कहकर स्वपरावभासक ज्ञान के रूप में उपन्यस्त किया है । वस्तुतः स्वपरावभासक ज्ञान का अभिप्राय भी सम्यग्ज्ञान ही है क्योंकि ज्ञान का सामान्य धर्म ही है अपने स्वरूप को जानते हुए परपदार्थ को जानना । समन्तभद्र की इस परिभाषा में न्यायावतारकर्ता (न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर नहीं हैं)८ ने 'बाधविवर्जित' पद जोड़कर 'प्रमाणं स्वपरभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम्" कहा। किन्तु 'बाधविवर्जित' पद विशेषण से जिस अर्थ की उपपत्ति होती है उसका संकेत आचार्य उमास्वाति ने सम्यग्ज्ञान में प्रयुक्त 'सम्यक्' शब्द के द्वारा ही कर दिया था । उमास्वाति के सम्याज्ञान प्रमाण की उपरोक्त परिभाषा को ही आधार मानकर सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद , भट्ट अकलंकर (७वीं शती), विद्यानन्द (वि. १०वीं शती), माणिक्यनन्दी२२ (वि. १०वीं शती), हेमचन्द्र तथा अनंतवीर्य आदि परवर्ती आचार्यों ने भी अपनी प्रमाण सम्बन्धी परिभाषाएँ दीं। + लेखक ने मूल स्तोत्र का जिक्र नहीं किया है । (संपादक) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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