Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigama Sutra me Pratyaksha Praman Author(s): Shreeprakash Pandey Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 9
________________ Vol. III-1997-2002 श्रीप्रकाश पाण्डेय २५९ सामर्थ्य है उन्हीं को होता है। असंज्ञी और अपर्यातकों को यह सामर्थ्य नहीं है। संज्ञी और पर्याप्तकों में भी सबको यह सामर्थ्य नहीं होती, केवल उनको, जिनके सम्यग्दर्शनादि निमित्तों के मिलने पर अवधिज्ञानावरण कर्म शान्त एवं क्षीण हो गया हो" । क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान छ प्रकार का होता है (१) अनानुगामी (२) अनुगामी (३) हीयमानक (४) वर्धमानक (५) अनवस्थित और (६) अवस्थित । आचार्य उमास्वाति ने इन छः ज्ञानों को इसी क्रम में रखा है। देवनन्दि एवं भट्ट अकलंक ने क्रमशः सर्वार्थसिद्धि" और तत्त्वार्थवार्तिक" में इसे भिन्न क्रम में रखा है यथा- अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित एवं अनवस्थित । (१) अनानुगामी" जो अवधिज्ञान केवल अपने उत्पत्ति स्थल में ही योग्य विषयों को जानता है, अनानुगामी अवधिज्ञान है । जैसे- किसी ज्योतिषी या निमित्तज्ञानी आदि के विषय में देखा जाता है कि वह एक निश्चित स्थान पर ही प्रश्नों का उत्तर दे सकता है सर्वत्र नहीं उसी प्रकार अनानुगामी अवधिज्ञान जिस स्थान पर उत्पन्न होता है उससे अन्यत्र वह काम नहीं कर पाता । 1 (२) अनुगामी" जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्ति स्थल और स्थानान्तर दोनों ही जगह अपने योग्य विषयों को जानता है, वह आनुगामी अवधिज्ञान है । जैसे सूर्य पूर्व दिशा के साथ-साथ अन्य दिशाओं को भी प्रकाशित करता है। - (३) हीयमानक" असंख्यात द्वीप समुद्र, पृथ्वी, विमान और तिर्यक, ऊपर अथवा नीचे जितने क्षेत्र का प्रमाण लेकर उत्पन्न हुआ है, क्रम से उस प्रमाण से घटते घटते जो अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण तक के क्षेत्र को विषय करने वाला रह जाय तो उसे हीयमानक अवधिज्ञान कहते हैं। जैसे अग्नि प्रज्वलित हो जाने पर भी यदि उससे योग्य ईंधन आदि न मिले तो धीरे-धीरे बुझने या कम होने लगती है । - (४) वर्धमानक" जो अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यातवें भाग आदि के बराबर प्रमाण लेकर उत्पन्न हुआ हो और उस प्रमाण से बढ़ता ही चला जाय तो उसे वर्धमानक अवधिज्ञान कहते हैं । (५) अनवस्थित" जो अवधिज्ञान एक रूप न रहकर अनेक रूप धारण करे वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। यह अवधिज्ञान उत्पन्न प्रमाण से कभी घटता है, कभी बढ़ता है और कभी छूट भी जाता है। जैसे किसी जलाशय की लहरें वायुवेग का निमित्त पाकर कभी ऊँची-नीची या कभी उत्पन्न तो कभी नष्ट हुआ करती हैं उसी प्रकार शुभ अथवा अशुभरूप जैसे भी परिणामों का इसको निमित्त मिलता है उसके अनुसार इस अवधिज्ञान की हानि, वृद्धि आदि अनेक अवस्थाएँ हुआ करती हैं । (६) अवस्थित "वह अवधिज्ञान जो जितने प्रमाण क्षेत्र के विषय में उत्पन्न हो, उससे वह तबतक नहीं छूटता जबतक कि केवलज्ञान की प्राप्ति न हो जाय या उसका वर्तमान मनुष्य जन्म छूटकर उसे भवान्तर की प्राप्ति न हो जाय, अवस्थित अवधिज्ञान कहलाता है अर्थात् जिसे अवस्थित अवधिज्ञान होता है, उससे वह तबतक नहीं छूटता जबतक की उसको केवलज्ञानादि की प्राप्ति न हो जाय क्योंकि केवल ज्ञान क्षायिक है, उसके साथ क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता । यदि उसी जन्म में केवल ज्ञान न हो, तो वह जन्मान्तर में भी उस जीव के साथ ही जाता है । गोम्मटसार में अवधिज्ञान के सामान्य से तीन भेद किए गये हैं- देशावधि, परमावधि और सर्वावधि । भवप्रत्यय अवधि नियम से देशावधि ही होता है तथा परमावधि एवं सर्वावधि नियम से क्षयोपशमनिमित्तक या गुणप्रत्यय ही होते हैं। गोम्मटसार में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को लेकर भी अवधिज्ञान का एक विवेचन मिलता है जिसके अनुसार जपन्य भेद से लेकर उत्कृष्ट भेद पर्यन्त अवधिज्ञान के जो असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं वे सब ही द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की अपेक्षा से प्रत्यक्षतया रूपी द्रव्य को ही ग्रहण करते हैं तथा उसके सम्बन्ध से संसारी जीव द्रव्य को भी जानते हैं किन्तु सर्वावधिज्ञान में जघन्य उत्कृष्ट आदि भेद नहीं हैं । वह निर्विकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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