Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigama Sutra me Pratyaksha Praman Author(s): Shreeprakash Pandey Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 3
________________ Vol. II- 1997-2002 श्रीप्रकाश पाण्डेय २५३ जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के सम्बन्ध में उक्त मतों को अस्वीकार किया है । जैनों के अनुसार नैयायिकों द्वारा मान्य सन्निकर्षादि को प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि उक्त सन्निकर्षादि (जड़) अज्ञानरूप हैं और अज्ञान से अज्ञाननिवृत्ति रूप प्रमा सम्भव नहीं है । अज्ञान निवृत्ति में अज्ञान का विरोधी ज्ञान ही कारण हो सकता है जिस प्रकार अंधकार की निवृत्ति में अंधकार का विरोधी प्रकाश । इन्द्रिय सन्निकर्षादि ज्ञान की उत्पति में साक्षात् कारण हो सकते हैं पर प्रमा में साधकतम तो ज्ञान ही हो सकता है । दूसरे, जिसके होने पर ज्ञान हो और नहीं होने पर न हो, वह उसमें साधकतम माना जाता है, जबकि सन्निकर्ष में ऐसी बात नहीं है । कहीं-कहीं सन्निकर्ष के होने पर भी ज्ञान नहीं होता, जैसे घट की तरह आकाश आदि के साथ भी चक्षु का संयोग रहता है फिर भी आकाश का ज्ञान नहीं होता । एक ज्ञान ही है जो बिना किसी व्यवधान के अपने विषय का बोध कराता है। अतः वही प्रमिति में साधकतम है और इस लिये वही प्रमाण है, सन्निकर्षादि नहीं । तीसरे, यदि सन्निकर्षादि को प्रमाण माना जाय तो सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध न होने से उनके द्वारा उन पदार्थों का ज्ञान असम्भव है; फलतः सर्वज्ञता का अभाव हो जायेगा । इसके अतिरिक्त इन्द्रियाँ अल्प-केवल स्थूल, वर्तमान और आसन्न विषयक हैं और ज्ञेय सूक्ष्म अपरिमिति है । ऐसी स्थिति में इन्द्रियों और सन्निकर्ष से समस्त ज्ञेयों का ज्ञान कभी नहीं हो सकता । चक्षु और मन ये दोनों अप्राप्यकारी होने के कारण सभी इन्द्रियों का पदार्थों के साथ सन्निकर्ष भी संभव नहीं । चक्षु स्पृष्ट का ग्रहण न करने और योग्य दूर स्थित अस्पष्ट का ग्रहण करने से अप्राप्यकारी है । यदि चक्षु प्राप्यकारी हो तो उसे स्वयं में लगे अंजन को भी देख लेना चाहिए" । अतः सन्निकर्ष और इन्द्रियादि प्रमाण नहीं हो सकते । उसी प्रकार कारक-साकल्य को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता । कारक-साकल्य को प्रमाण मानने पर प्रश्न उठता है कि कारक-साकल्य मुख्य रूप से प्रमाण है या उपचार से । वह मुख्य रूप से प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि कारक-साकल्य अज्ञान रूप है और जो अज्ञान रूप है वह स्व और पर की प्रमिति में मुख्य रूपेण साधकतम नहीं हो सकता । प्रमिति में मुख्य साधकतम तो अज्ञान का विरोधी ज्ञान ही हो सकता है । क्योंकि ज्ञान और प्रमिति के बीच में किसी दूसरे का व्यवधान नहीं है । ज्ञान के होते ही पदार्थ की प्रमिति हो जाती है । किन्तु कारक-साकल्य में यह बात नहीं है । कारक-साकल्य ज्ञान को उत्पन्न करता है, तब पदार्थ की प्रमिति या जानकारी होती है । अतः कारक-साकल्य और प्रमिति के बीच में ज्ञान का व्यवधान होने से कारक-साकल्य को मुख्य रूप से प्रमाण नहीं माना जा सकता । सांख्यों के इन्द्रियवृत्ति को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि इन्द्रियवृत्ति अचेतन है और जो अचेतन है वह पदार्थ के ज्ञान में साधकतम नहीं हो सकता । इन्द्रियवृत्ति क्या है ? इन्द्रियों का पदार्थ के पास जाना, पदार्थ की ओर अभिमुख होना अथवा पदार्थों के आकार का हो जाना । प्रथम पक्ष ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रियाँ पदार्थ के पास नहीं जातीं अन्यथा दूर से ही किसी पदार्थ के ज्ञान की उपपत्ति नहीं हो पायेगी | दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रियों का पदार्थ की ओर अभिमुख होना ज्ञान की उत्पत्ति में कारण होने से उपचार से प्रमाण हो सकता है, वास्तव में तो प्रमाण ज्ञान ही है । तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रियों का पदार्थ के आकार का होना प्रतीति विरुद्ध है । जैसे दर्पण पदार्थ के आकार को अपने में धारण करता है वैसे श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ पदार्थ के आकार को धारण करते नहीं देखी जातीं । फिर भी यदि इन्द्रियवृत्ति होती है, ऐसा मान भी लिया जाय तो प्रश्न उठता है कि वृत्ति इन्द्रिय से भिन्न है या अभिन्न । यदि अभिन्न है तो उसे इन्द्रिय ही कहा जाना चाहिए क्योंकि तब इन्द्रिय और उनकी वृत्ति एक ही हुई । परंतु निद्रावस्था में यदि इन्द्रिय और उसके व्यापार या वृत्ति की अभिन्नता मानी जाय तो सुप्त और जाग्रत् अवस्था में कोई अन्तर नहीं रहेगा । यदि वृत्ति को इन्द्रिय से भिन्न मानें तो इन्द्रिय वृत्ति की ही उपपत्ति नहीं हो पाती तो फिर उसे प्रमाण कैसे माना जा सकता है। बौद्धों के निर्विकल्पक ज्ञान को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानने पर विकल्प के आधार पर लिये जाने वाले लोक-व्यवहार आदि संभव नहीं हो सकेंगे । यदि बौद्ध यह कहें कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16