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सम्पादकीय : रूप जो बदला नहीं फिरोजाबाद के समीप चन्द्रवार नामक स्थान की घटना है, कि पद्मावती जाति में ब्रह्मगुलाल नामक प्रसिद्ध व्यक्ति ने १६ वी १७ वीं शताब्दी में जन्म लिया। माता पिता का दलार, परिवार एवं मित्रों का स्नेह प्राप्त कर आनंद से रहते थे। आपने ग्वालियर के भट्टारक स्वस्ति श्री जगभूषण जी के समीप में रह कर धर्मशास्त्र, गणित, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छन्द अलंकार एवं संगीत की शिक्षा अल्प काल में प्राप्त की। विद्या के साथ विनयगुण, पात्रता, धार्मिक वृत्ति आदि सद्गुणों का समावेश लघु उम्र में प्राप्त कर लिया। संगीत में विशेष रुचि होने से लावनी, शेर चौपाई,दोहे आदि सनने सनाने का चाव था। आपने यवा अवस्था में ही वीर, श्रृंगार हास्य रस से युक्त रचनाओं के साथ रामलीला, रासलीला नाटक एवं स्वांग भरने, नृत्य कला तथा तद्रूप आचरण दिखाने की प्रवृत्ति से माता पिता तथा परिवार के सभी सदस्य बहुत दुखी थे। अनेक हितैषियों के समझाने एवं मना करने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथा मना करने पर वे त्योहारों, बसंतोत्सव, एवं मेलों आदि में बढ़चढ़ के भाग ले कर लोगों का मनोरंजन करतें। नृत्य कला की प्रसिद्धि से चारों ओर सम्मान के साथ आपकी प्रतिष्ठा बढ़ी तथा आपकी ख्याति राज दरबार तक पहुंची किंतु प्रधान मंत्री को ईर्ष्या हुई। कीर्ति को कम करने की दृष्टि से गंभीर षड्यंत्र रचा तथा राजकुमार को उकसाकर कहा कि ब्रह्मगुलाल से कहो कि वह सिंह का स्वांग करें। ब्रह्मगलाल ने स्वीकार तो किया किंत विनय पूर्वक महाराज से निवेदन किया कि इस स्वांग में कोई भूल-चूक हो जाये तो मुझे क्षमा किया जाए। राजा ने स्वीकृति दे दी। राजनीति के चतर खिलाड़ी की चाल सफल हो रही थी वह सोच रहा था कि यह श्रावक कल में जन्मा है तथा . अहिंसा, दया, जीव रक्षा की शिक्षा बाल्य काल से दी गई है सिंह स्वांग के अभिनय में उसके लिए ऐसा अवसर आना चाहिए जिससे इसकी परीक्षा जीव बध से की जाये यदि जीव बध करेगा तो यह श्रावक पद से रहित हो जायेगा और जीव हिंसा नहीं करेगा तो अपयश होगा। कलाकार ब्रह्मगुलाल ने सिंह का रूप बनाया तथा दहाड़ते हुए राजसभा में पहुंचे। वहां पर बकरी देखी तो स्वांगवृत्ति धारक ब्रह्मगुलाल कुछ सोच ही रहे थे कि राजकुमार ने कहा :
"सिंह नहीं तू स्यार है, मारत नाहि शिकार। बृथा जनम जननी दियो जीवन को धिक्कार।।" अपमान के शब्द सुनते ही ब्रह्मगुलाल की आत्मा विक्षुब्ध हो गई। बकरी पर से ध्यान हटा। क्रोधावेश में उछाल मारी तथा राजकमार के गाल पर जोरदार झप्पटा मारा। राजकमार घायल होकर बेसुध गिर पड़ा। घातक हमले से राजकुमार के प्राण पखेरू उड़ गये।
राजा को पुत्र वियोग का दःख बैचेन कर रहा था। मंत्री ने राजा को पुनः सलाह दी कि ब्रह्मगलाल को आदेश दें कि दिगम्बर मुनि बन कर शोकाकुल परिवार को शान्ति का उपदेश दें। ब्रह्मगुलाल ने दिगम्बर मनि का रूप धारण कर संसार की असारता का उपदेश दिया राजा को आत्म शान्ति की दिशा दिखाई तथा राजा ने मनि भेष धारी ब्रह्मगलाल से कहा कि आप जो भी मांगना चाहो मांगो परंतु दिगम्बर मुनि ने कुछ नहीं मांगा तथा अपनी पिच्छी कमंडलु ले कर चार हाथ भूमि शोधन करते हुए बन में चले गये। ब्रह्मगलाल के मित्र मथुरा मल जी उनको समझाने गये तब मुनि श्री ने मथुरा मल से कहा कि यह जो स्वांग भरा है यह एक ही बार धारण किया जाता है संसार की असारता को समझ कर मित्र मथुरा मल ने भी दीक्षा ले ली। यही दिगम्बर मनि का सही रूप है।
ब्र. धर्म चंद शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य ज्योतिषाचार्य
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आचार्य धर्मश्रत ग्रन्थमाला गोधा सदन अलसीसर हाउस संसार चंद रोड, जयपुर धर्म चंद शास्त्री डा. मूलचंद जैन मुजफ्फरनगर संसार चंद रोड बनेसिंह श्री पार्श्वनाथ दि. जैन मंदिर क्ष. राजमति आश्रम गुलाब वाटिका-दिल्ली सहारनपुर रोड-दिल्ली
प्रकाशन वर्ष-१९८९-अप्रैल वर्ष २ अंक १६ मल्य ६.००रु.. स्वत्वाधिकारी/मद्क/प्रकाशक तथा सम्पादक धर्मचंद शास्त्री द्वारा जुबली प्रेस से छपकर धर्मचंद शास्त्री ने गोधा सदन अलसीसर हाउस संसार चंद रोड जयपुर से प्रकाशित की।
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