Book Title: Ratnakaranda Shravakachar
Author(s): Vidyullataben Shah
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 4
________________ ३४० आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ जीव भी उस रत्न को पा सकता है और उसके प्रभाव से वह भस्माच्छादित अग्नि की तरह भीतर से तेजःपुंज ही रहता है। सम्यग्दर्शन स्वयं एक मंत्र स्वरूप है। उसके प्रभाव से कुत्ता जैसा क्षुद्र जीव भी श्रेष्ठ देव बन जाता है। और अधर्म के कारण देव भी कुत्ते की पर्याय धारण करने को बाध्य हो जाता है। यही बात ' श्वाऽपि देवोऽपि देवः श्खा जायते धर्मकिल्बिषात् ' इस श्लोक में कहीं गई है। मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन की महिमा बताने के लिये कुछ दृष्टान्त दिये गये हैं जिनसे उसकी प्रमुखता सिद्ध हो जाती है। __'दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते' नौका होने पर भी नाविक-कर्णधार न हो तो समुद्रपार होना असंभव होता है । ठीक इसी तरह समुद्र से पार होने के लिए सम्यग्दर्शन ही कर्णधार है। 'बीजा भावे तरोरिव' बीज के अभाव में वनस्पती की उत्पत्ति नहीं होती, उसी तरह सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्ज्ञानादि वृक्ष की उत्पत्ति नहीं हो सकती? सम्यग्दर्शन को घातने वाले मोह की ग्रन्थी अन्तरंग से अगर दूर नहीं हुई तो बाह्यतः परमेष्ठी की पंक्ती पर आरूढ साधु का कुछ भी महत्व नहीं रहता है उसकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि गृहस्थ, जिसके परिणामों में दर्शन मोह की भाव ग्रन्थी नहीं है, श्रेष्ठ माना गया है। सम्यग्दर्शन के प्रभाव से जीव नरक, तिर्यच, नपुंसक, स्त्री, दुष्कुलजन्म आदि अवस्था नहीं प्राप्त करता। मिथ्यादृष्टि जीव भी सज्जातित्व, सद्गृहस्थत्व और पारिभाजकता प्राप्त कर सकता है, परंतु वह सुरेंद्रत्व चक्रवर्तित्व, तीर्थंकरत्व पदों को नहीं पा सकता । इन पदों को सम्यग्दृष्टि ही प्राप्त कर सकता है। इस तरह पहले अध्याय में धर्म के प्रधान अंगभूत सम्यग्दर्शन का वर्णन सांगोपांग रूप से किया गया है । ज्ञानाधिकार जीव मात्र का सामान्य तथा निर्दोष लक्षण चैतन्य है। ज्ञान तथा दर्शन ये दोनों चैतन्य ही की विशिष्ट अवस्था में हैं। ज्ञान ही उसका मूलभूत स्वभाव है। जब वह ज्ञान वस्तुतत्व को संशयादि दोषों से रहित यथावत् जानता है तब वही सम्यग्ज्ञान कहलाता है । यद्यपि ज्ञान की उभय दशा में ज्ञानत्व है, लेकिन सम्यग्दर्शन के साथ जो ज्ञान होता है वही ज्ञान धर्म ( मोक्षमार्गभूत ) होता है। 'सम्यग्ज्ञान' इस शब्द से कही जानेवाली बस्तु भावश्रुत है । जब यह भावश्रुत शब्द के माध्यम से प्रगट होता है तब उसे द्रव्यश्रुत या 'आगम' कहते हैं । परिणामतः आगम भी उपचार से सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। आगम के अंगभूत चारों अनुयोगों में सम्यग्ज्ञान दीपक का प्रकाश पाया जाता है । सारांश जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनाधिकता से रहित, वास्तविक रूप को प्रगट करता है वही सम्यग्ज्ञान है। उसमें संशय के लिए रंचमात्र भी अवकाश नहीं है । वह आगम चार अनुयोगों में विभक्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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