Book Title: Ratnakaranda Shravakachar Author(s): Vidyullataben Shah Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 5
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३४१ प्रथमानुयोग तीर्थकरादि पुण्य पुरुषों के पवित्र चरित्रों का और पुरुषार्थों का कथन करनेवाले पुराणस्वरूप सभी ग्रन्थों को प्रथमानुयोग कहते हैं । ये ग्रन्थ बोधि और समाधि की प्राप्ति के लिए उदाहरण के रूप में मार्गदर्शक होते हैं। करणानुयोग लोकालोक का विभाग, युगपरिवर्तन, चतुर्गति का स्वरूप इ. विषयों को इसमें कही गई है । इन्हें जानकर जीव कुमार्ग से विमुख बन सन्मार्ग की ओर झुकता है। चरणानुयोग गृहस्थ और साधुओं के आचार मार्ग, उसकी उत्पत्ति, बुद्धि और सुरक्षा आदि के सम्यक्उपाय आदि का निर्दोष वर्णन इसमें किया गया है। द्रव्यानुयोग श्रुतज्ञान मंदिर में संपूर्ण चराचर वस्तुस्वरूप पर प्रकाश फैलानेवाला यह दीपस्तंभ है। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष तथा पुण्यपाप इनसे संबंधित जीव तत्त्व का वास्तविक स्वरूप इसमें दिखाया गया है। इस तरह केवल सम्यग्ज्ञान का पांच श्लोकों के द्वारा इस अध्याय में बीजरूप से वर्णन यथावत् किया है । विश्वव्यापी भावश्रुत और द्रव्यश्रुत इसमें सुनिहित है। चारित्राधिकार रागद्वेष से पूर्णतया निवृत्त होना यह चारित्र का उद्देश है। चारित्र वह विशुद्धता है जहां आत्मा की आत्मा में प्रवृत्ति होती है । यह चारित्र का सर्वोच्च बिंदु है । क्रमशः यह प्रवृत्ति साध्य होती है। जिन जिन आचारों से चारित्र के उस ध्येय बिंदु के समीप पहुंच होती है उस आचार का अगले तीन अध्यायों में वर्णन है। प्रथमतः चारित्र का स्वरूप और वर्णन किया है। मोह का अभाव होने पर और पत्थर की लकीर की तरह चिरकाल स्थिति रखनेवाले अनंतानुबंधी उसके सकल तथा विकल चारित्ररूप भेदों का निर्देश कर के कषायों का उदय भाव होने पर ग्यारह प्रतिमा और सल्लेखना इनका विस्तार से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान का लाभ होता है । और रागद्वेष की तीव्रता घटती जाती है। रेखातुल्य कषायों के अभाव में (विशिष्ट ) रागद्वेष की निवृत्ति होती है । हिंसादिक पांच पाप प्रवृत्तियां नष्ट होने लगती हैं। यही व्यवहार चारित्र है। यह चारित्र स्वामी भेद की अपेक्षा से दो तरह का है। सकल चारित्र महाव्रतीयों को होता है जो सर्व प्रकार से पंच पापों के त्यागी होते हैं । विकल चारित्र सम्यग्दृष्टि गृहस्थों को होते हैं जो पांच स्थूल पापों को छोडते हैं। इस अध्याय में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस तरह बारह व्रतों का तथा हर एक में लगनेवाले पांच पांच अतिचार दोषों का स्वरूप समझाया गया है। गृहस्थ जीवन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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