Book Title: Ratnakaranda Shravakachar
Author(s): Vidyullataben Shah
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 2
________________ ३३८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ सुखप्राप्ति का, मोक्ष का मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता में है; न कि भिन्नता में । आचार्य श्री उमास्वामि ने भी अपने तत्त्वार्थसूत्र के प्रारंभ में 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' । इस सूत्र में 'मार्गः' एकवचन रखकर जिस तरह दोनों की एकता मोक्षमार्ग है इस प्रकार किया है। उसी तरह 'धर्म' इस एक वचनात्मक शब्दप्रयोग द्वारा मुक्तिमार्ग एक ही है अनेक नहीं है यह सूचित किया है। उपर कहे गये श्लोक के पूर्वार्ध में जिस तरह धर्म का सारभूत स्वरूप कहा गया है, उसी तरह उत्तरार्ध में अधर्म का स्वरूप कहा गया है-'यदीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः' । धर्मस्वरूप विरुद्ध मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र यह संसारचक्र की परंपरा को बढानेवाला अधर्म है। ग्रंथ का विस्तार अत्यल्प होते हुए भी वर्ण्य विषय के बारे में कहीं भी संदिग्धता नहीं है। थोडे शब्दों में जटिल प्रश्नों का निश्चित निर्णय हो जाता है । जो भी कुछ कहा गया है, अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असंभव इन दोषों से मुक्त हितकारक सत्य हि कहा गया है। अतएव इस ग्रंथ को सूत्ररूप ग्रंथ कहने में कोई भी अतिशयोक्ति नहीं है । सूत्र का लक्षण ऐसा ही होता है 'अल्पाक्षरं संदिग्धं सारवद्गृढनिर्णयम् । निर्दोष हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥' (जयधवल ) इस ग्रंथ में उपासक के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म का वर्णन अभिप्रेत है। सर्वप्रथम प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन, द्वितीय अधिकार में सम्यग्ज्ञान का और शेष अध्यायों में सम्यक्चारित्र का (पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का) अर्थात बारह व्रतों का प्रतिमाओं का और सल्लेखना का विवेचन है । यह ग्रंथ चरणानुयोग का होने से पुरुषार्थपूर्वक आचार की प्रधानता से लिखा गया है । इसलिए रत्नत्रय का विवेचन यहाँ पर द्रव्यानुयोग की दृष्टि से न होकर सम्यग्दर्शन के उत्पत्ति के निमित्तभूत और सम्यग्दर्शन के साथ साथ रहनेवाले बाह्य आचार की दृष्टि से ही सम्यग्दर्शन का वर्णन किया गया है । अर्थात आशय स्पष्ट है की व्यवहारनय की प्रधानता से ही ग्रंथ की रचना है। फिर भी समीचीन व्यवहार का यथार्थ दर्शन करते हुए 'श्रद्धानं परमार्थानाम् ' (श्लोकांक ४) 'रागद्वेषनिवृत्त्यै ' इ. (श्लोक ४७) आदि पदों के प्रयोग से निश्चय के यथार्थभाव का स्पष्टतया उल्लेख बराबर यथास्थान आया ही है इसलिए सम्यग्दर्शन का लक्षण निम्न प्रकार से किया है। श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ सच्चे आप्त-देव, शास्त्र और गुरुओं के तीन मूढता तथा आठ प्रकार के गर्यो से रहित और आठ अंगों से सहित निर्मल श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। ज्ञान और चारित्र का आधार सम्यग्दर्शन होने के कारण इस लक्षणात्मक श्लोक में आये हुए हर एक शब्द का स्पष्टीकरण आगे के प्रथमाध्याय के श्लोकों में किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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