Book Title: Rajasthan ke Jain Sanskrut Sahityakar Author(s): Shaktikumar Sharma Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 9
________________ भट्टारक ज्ञानहंस व्याकरण, छन्द, अलंकार साहित्य तर्क आगम अध्यात्म आदि शास्त्र रूपी कमलों पर विहार करने वाले राजहंस थे । शृद्ध ध्यानामृत पान की उन्हें लालसा थी । " 3 नाथूराम प्रेमी ने इनके तत्त्वज्ञान-तरंगिणी, सिद्धान्तसार-भाष्य, परमार्थोपदेश, आदीश्वर फाग, भक्तामरोद्यापन, सरस्वती पूजा तथा परमानन्द जी ने आत्म-सम्बोधन काव्य सरस्वतीस्तवन आदि रचनाओं का परिणयन किया है । राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में ऋषिमण्डल पूजा, पंचकल्याणोद्यापनपूजा, भक्तामरपूजा, श्रुतपूजा, शास्त्रमण्डलपूजा तथा दशलक्षण व्रतोद्यापन पूजा आदि अतिरिक्त ग्रंथ भी प्राप्त होते हैं । राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार ४५५ तत्त्वज्ञानतरंगिणी नामक रचना इनकी सर्वोत्कृष्ट कृति है । १८ अध्यायों में विभक्त तथापि लघुकाय रचना में शुद्ध आत्मतत्त्व प्राप्ति के उपाय बताये गये हैं । भट्टारक पद छोड़कर मुमुक्षत्व की ओर अग्रसर कवि की यह प्रौढ़ रचना विद्वत्ता एवं काव्यत्व से परिपूर्ण है । (३३) भट्टारक शुभचन्द्र वाल्यकाल से भट्टारक शुभचन्द्र विद्वानों के सम्पर्क में रहने लगे थे। आपके गुरु भट्टारक विजयकीर्ति थे । व्याकरण एवं छन्दशास्त्र में निपुणता प्राप्त कर आप भट्टारक ज्ञानभूषण एवं विजयकीर्ति दोनों के सान्निध्य में रहने लगे। सं० १५७३ में आप भट्टारक पद पर अभिषिक्त हुए। ईडर शाखा की गद्दी के सर्वोच्च अधिकारी भट्टारक शुभचन्द्र ने राजस्थान, गुजरात एवं उत्तर प्रदेश को अपने उपदेशों से पवित्र किया । भट्टारक शुभचन्द्र वक्तृत्व कला में पटु एवं अनेक विषयों में पारंगत थे। , संघव्यवथा एवं आत्मसाधना के अतिरिक्त समय को साहित्य साधना में लगाने वाले भट्टारक की लगभग ४० संस्कृत कृतियां हैं। इनमें १. चन्द्रप्रभचरित २. श्रेणिकचरित १ जीवंधरचरित ४ प्रनचरित २ पाण्डवपुराण काव्यात्मक कृतियां हैं। पाण्डवपुराण की लोकप्रियता इनके जीवनकाल में ही बहुत अधिक हो गयी थी। शेष रचनाओं में चन्दनकथा, अष्टान्हिक कथा रचनायें कथा साहित्य की श्रीवृद्धि करती है। शेष रचनायें पूजा, व्याकरण, न्याय सम्बन्धी है । लेख के आधार को दृष्टिगत रखते हुए उन पर विचार करना यहाँ स्थगित रखा गया । (३४) भट्टारक जिनचन्द्र - आप वड़ली निवासी श्रीवन्त एवं सिरियादेवी के पुत्र थे । सुलतान कुमार नामक यह आईती दीक्षा प्राप्त कर सुमतिधीर एवं आचार्य पद प्राप्त कर जिनचन्द्र हो गये। सं० १६४८ में अकबर ने आपको युगप्रधान का विरुद्ध प्रदान किया। राजस्थान, गुजरात एवं पंजाब में विहार करने वाले आचार्य जिनचन्द्र सूरि की एक ही कृति विख्यात है। औषधि - विधि- प्रकरण टीका वास्तव में आयुर्वेद से सम्बन्धित कृति है । (३५) पुण्यसागर -- जिनहंस सूरि के शिष्य पुण्यसागर की दो कृतियाँ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र टीका एवं प्रश्नोतरकषष्ठिशतकाव्य टीका जिनकी क्रमशः १६४५ में जैसलमेर एवं १६४० में बीकानेर में रचना हुई । (३६) जिनराजसूरि-बीकानेर में धर्मसी एवं धारलदे के घर में सं० १६४७ में आपका जन्म हुआ । खेतसी नामक यह बालक १६५६ में दीक्षा प्राप्त कर राजसमुद्र तथा आचार्य पद प्राप्त कर जिनराजसूरि बन गया। आप नव्यन्याय एवं साहित्य शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे । १. जैन साहित्य और इतिहास - नाथूराम प्रेमी, पृ० ३८१-८२ २. जैन साहित्य और इतिहास - नाथूराम प्रेमी, पृ० ३८२ ३. जैन प्रशस्ति संग्रह - पं० परमानन्द ४. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची, भाग चतुर्थ ४६३-८३० ५. भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० १५८ ६. जैन साहित्य और इतिहास, नाथूराम प्रेमी, पृ० ३८३, ७. प्रशस्ति संग्रह डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ०७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only · www.jainelibrary.org.Page Navigation
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